बुधवार, 24 फ़रवरी 2016

मैं भी आम आदमी , तू भी आम आदमी !


आप बड़ी विलायती फर्म में मैनेजर है । मोटी पगार पाते है । दुनिया जहान  घुमते है । डॉलर कमाते है ।  लम्बी गाडी में चलते है । बड़े शहर में ३ मकान है । एक परिवार के लिए , बाकि दो से भाड़ा आता है ।
आपने कई जगह पैसा लगा रखा है , निवेश के हिसाब से ।
क़िस्त चुकाते है , जरूरत के मज़बूरन नहीं । इन्वेस्टमेंट के हिसाब से और टैक्स बचत के हिसाब से !

पूछा "क्या हाल है? कैसी चल रही है लाइफ!"
आप तो  भरे बैठे है, बस फटने को तैयार  " कैसी होती है आम आदमी की लाइफ , कमाओ बैल माफिक , सरकार को लगान दो , अपनी ग्रहस्ती जैसे तैसे धकेलो ! क्या होगा इस देश का । हमारे जैसे  'आम आदमी' का । बस पिस रहे  है , चूसे  जा रहे  है । मर रहे  है तिल तिल । ये साले नेता लोग । बंटाधार कर दिए। क्या होगा इस देश का   "
आप खफा है व्यवस्था से  , सरकार से , ब्यूरोक्रेसी से । आपका गुस्सा जायज़ है ।
आप बहुत कुछ करना चाहते थे देश के लिए, फिक्रमंद है  । लेकिन अब उक्ता गए है । भाड़ में जाए सब , अब बस मैं और मेरा परिवार ।
आम आदमी का दर्द है ये । व्यवस्था ने हताश किया है ।

एक फटेहाल मज़दूर सड़क किनारे मिटटी डाल रहा है । थका है , पसीनो पसीना है ।
पूछा "क्या हाल है? कैसी चल रही है जिंदिगी "
मानो दुखते फोड़े को छू दिया । " कैसी जिंदिगी भैया । समय काट रहे है । महंगाई के दौर में 'आम आदमी' क्या करे । दो जून की रोटी के लिए पिल रहे है ।  कहाँ से लाये इतना कि बच्चो की फीस चली जाये । जोरू की दवा का इंतज़ाम हो । 'आम आदमी ' के लिए सरकार कहाँ कुछ करती है । सब रांम भरोसे।  "
हताशा चेहरे पे दिखती है । व्यवस्था ने आम आदमी को लाचार किया है ।

देखा आपने । कितना चौड़ा है आम आदमी का दायरा । यहाँ हर कोई आम आदमी है ।
लाचार , राम भरोसे , खफा , हताश !

 मुझे लगता है , बलात्कार हुआ है बलात्कार !
आम आदमी का नहीं , आम आदमी होने के जुमले का । बेचारा दिखने की होंड है । हर कोई प्रताड़ित दिखना चाहता है । और ये नाटक नहीं है , वास्तव में महसूस करता है जन जन ।  सूट वालो  से लेकर लुंगी वाले तक,  सब के सब , बिना मिलावट पूर्ण रूपेण  आम आदमी !

फिर होता क्या है । जहाँ हर कोई मज़लूम होता है , त्राहिमाम त्राहिमाम करता है   , वहाँ मसीहा आ जाते हैं ।
केजरीवाल आ जाते है , कुलाटिया मारते है , आम आदमी आम आदमी चिल्लाते है और आप भावुक हो पलकें बिछा देते है ।  फिर सामने वाला अपना तम्बू गाड़ बैठ जाता है । नित वही पुराने स्वांग रचता है, जो आपने पीढ़ियों से देखे है  ।

फिर आप मतलब कि लाचार आम आदमी , एयर कंडिशयन में सीट से चिपके बेहद आम आदमी , खिसियाते है , मिमियाते है ।  अपना निर्णेय सही ठहराने को कहते है " जो भी हो , पिछले वालो से तो बेहतर है , कीली ठोकता तो है पर होले होले से !, दर्द कम  होता है "

जरा सोचिये , समस्या सिर्फ सरकार तक ही है क्या , व्यवस्था तक ही है क्या? या उसकी जड़े आपके दिमाग को भी जकड़े है । डीफीटिस्ट माइंडसेट  के वायरस से आप बचे हुए है क्या ?
अखबार चाट के , न्यूज़ चैनल देख के अपने  फ्रेंड सर्कल में सरकार को , व्यवस्था को , नेताओ को गाली देना , अपने आपको बेचारा , हालात का मारा मज़लूम करार देना । ये किसी आपात स्तिथि के आगाज़ का संकेत नहीं है भैय्या  , महज आपकी बढ़ती उम्र का इशारा है !

हिन्दुस्तान चलता आया है ,हिन्दुस्तान चलता रहेगा ! एक महीने के लिए न्यूज़ चैनल बंद कर दीजिये , अखबार बंद । देखना आपके कंधो से कितना भार उतर  जायेगा । हल्का महसूस करोगे ।
और हो सके तो उतार फेंकिए आम आदमी का चोला । अपने आप को औसत कहिये , साधारण कहिये ।
और विलक्षण बनने के लिए प्रयासरत रहिये ।

वैसे जिस तरह से माहौल  बना के चला जा रहा है माकड़ा  , 'इशरत जहाँ ' के अब्बु दिल्ली आ सकते है अगली बार ,गठबंधन की पोटली लेके !

अरे ! अभी पिछले महीने ही बंद किया है अखबार पढ़ना , दिम्माग को डिटॉक्स करने में टाइम लगता है भैय्या !
हालात में सुधार हो रहा है  पहले से , हौले हौले !

                                                                                                     - सचिन कुमार गुर्जर

सोमवार, 22 फ़रवरी 2016

स्थिति अब नियंत्रण में है ।

क्या लगता है सिर्फ एक माचिस की तीली और शायद थोड़ा सा केरोसिन ।
और कितनो के सपने धुँआ धुँआ हो जाते है न ।  है कि नहीं ?

कितना मुश्किल होता है , पीढ़ियाँ खप जाती है , एक ठीक ठाक सा काम-धंधा ठीया जमाने में ।
किसलिए , कि कोई सिरफिरों का , कमअक्लो का झुण्ड आये , एक हुजूम आये और सब रौंद के निकल जाये ।  क्यों ?

पता नहीं क्यों ? निकल नहीं पा रही बात दिमाग से ।
बड़ा कमजोर हो चला हूँ । किसी ने पोस्ट किया था फेसबुक पे रोहतक में  धूं धूं होती दुकानो का , लपटों में स्वाह होते रुजगारो का । पूरा नहीं देख पाया ।

दस साल हुए मुझे रोजी रोटी कमाते । कोडी कोडी कर बचाते । सपना , वही आम । कुछ ऐसा ही काम धंधा खड़ा करने का । कोई ऐसी ही दूकान जिसे बच्चे कह सके कि पुश्तैनी है , पापा  खड़ी कर गए है ।
काले सुनहरे बालो की फसल थी सिर पर, १० साल में चाँद नज़र आने लगी है । कंपटिया तो कब की छक सफ़ेद हो गयी ।  तनाव । सध कर चलना । दोस्त कंजूस कहें , बीवी गहनों के लिए गिड़गिड़ाए , फोकस नहीं खोना ।
और हाँ , सब कुछ सही रहा ना  , उस नीली छतरी वाले की मेहर रही , तो शायद पूरी तरह गंजा होने तक हो जाए कुछ ।

अतिश्योक्ति है ? आम आदमी को इतना ही समय लगता है भैय्या ! बहुत विरले होते है होनहार , बहुते ही कम , जो इकन्निया बोकर लाखों करोडो उगा लेते है, या जिनके दिमागों के विचार सम्पदा उगाते है  ।  आम आदमी को खपना पड़ता है । पसीने से सींचना होता है ख्वाब , बिना थके बिना भटके । जवानी का मोल चुकाना पड़ता है ।

डर लगता है , ढलते हुए सूरज के साथ , दुखती कमर से , झुर्रीदार चेहरा लिए जब मैं सुस्ताने को बैठना चाहूँगा अपने जवानी का मोल चूका हासिल किये ठीये पर , कोई सिरफिरों का हुजूम फिर से तो नहीं आ जायेगा और उड़ा ले जायेगा सब गुबार में ।

और कहीं उस दिन की सरकार भी यही ना बोले , आर्मी बुला ली गयी है , स्थिति अब नियंत्रण में है । माँगे मान ली गयी है !

मन नहीं लग रहा काम में । उफ्फ , क्या दिक्कत है ससुरी , बाइपोलर हूँ क्या ? बड़ा जज्बाती हो चला हूँ ।
वैसे आरक्षण का हलुआ खाने के बदले  लम्बी लम्बी गाड़ियों  के आगे चौड़ा सा 'चौधरी' और 'नम्बरदार' लिखने का हक़ तो कम से कम  खारिज कर ही देना बड़ी सरकार !
थोड़ी बहुत कलेजे की ठंडक का हक़ तो देदो मेहनतकश को,  जिल्ले इलाही !
ज्यादा माँग लिया क्या ?:(

"यहाँ दूध दही का खाना , ये है प्रदेश हरियाणा !"
 
                                                              --सचिन कुमार गुर्जर


शुक्रवार, 12 फ़रवरी 2016

वैलेंटाइन डे आ गया है !


शाम को ऑफिस के सामने , दोस्त के साथ चाय की चुस्कियाँ  ले रहा था ।  सामने एक गुलाब की एक छोटी सी दूकान सजी थी ।
'पता है , पचास डॉलर का एक बिक रहा है अभी से !"  दोस्त ने ज्ञान दर्शन कराते  हुए बतलाया ।
बिक रहा होगा , अचम्भा मत कीजियेगा ! नार्मल है ।

कितना फासला है न दुनिया में वैसे । ..
एक तरफ महंगा, कतार  में लग मुश्किल से हासिल,    सेंटेड गुलाब लगेगा  , कैंडल लाइट डिनर और भी अलाना फलाना , न जाने क्या क्या पैम्परिंग ।
दूसरी ओर  वो भी एक दुनिया है जहाँ शाम को काम से थका हारा लौटा मानुस बेसन में सने दो उबले, तले  अंडे और एक आध किलो भर अंगूर ले आये तो उसारे में रोटी पिरोती  पत्नी समझ जाती है कि  आज वैलेंटाइन डे मनेगा !

हा हा हा ! यकीन मानिये , सच्ची ! बसती है ऐसी दुनिया भी , इसी धरती पर !

युगो युगांतर पहले एक बार  हम भी लग बैठे  थे इज़हारे इश्क़ की कतार में । कतार लम्बी थी , नंबर आने से पहले ही दिमाग पलट गया ।  साला लॉजिक समझ नहीं आया !
फिर शाम को ऑफिस से लौटते हुए पास के पार्क से एक अच्छा सा फूल चोरी छुपे तोड़ लिया और प्रेयसि , मेरा मतलब के पत्नी  को थमा पूरी आत्मा के साथ बालों में हाथ फिरा  के बोला  " सुनो , जान बसती  है तुममे हमारी , अपना ख्याल रखा करो! "

अब वो इम्पैक्ट क्रिएट हुआ कि नहीं ये तो राम जाने या  प्राणप्रिये  , पर हमारा समर्पण पूरा था , पूरी शिद्दत वाला  , दिल की गहराईओं वाला  !

वैसे 15  फरबरी को जब गुलाब सस्ता हो जाए तब दिया जाए तब वो असर रहेगा या नहीं ।  हुँह ?

हम्म , शायद नहीं ।  वो प्यार  प्यार ही क्या  जो  साला या तो  छित्तर ना  पड़वाए या फिर जेब में छेद न करे !  क्यों ?

प्यार दुर्लभता में है , प्रचुरता में जो हो वो प्यार नहीं रहता  ।  रिश्ता  बन जाता है शायद ।  है कि नहीं !
इस कथन को अपने हिसाब से तोलियेगा ! हो सकता है आपकी प्रचुरता  प्रेम की चासिनी में डूबी हो , गाढ़ी हो :)

पर ये तो है कि १४ फरबरी एक  दुर्लभता तो पैदा करती ही  है । एक होड़ सी मच जाती है ।  एक माहौल सा बन जाता है । और प्यार में माहौल के बड़े मायने है । है कि नहीं ?

सुनो , ले ही लीजिये आप एक गुलाब । पैसा क्या है , हाथ का मैल है , आता जाता रहता है । बालो में हाथ फिरा  बिना खर्च किये 'प्राण बसते है......  " वाला डायलॉग बैकफायर  भी कर सकता है । अपने हिसाब से प्लान कीजियेगा , प्लीज !

शरारती हो रहा है मन अपना भी वैसे  ! फरबरी में कुछ तो है ! माहौल का संक्रमण है शायद !

बहते रहो और बहाते  रहो ! ......

 प्यार वे, और क्या  :)
हा हा हा ।  सही पकडे हो !

अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...