मंगलवार, 30 दिसंबर 2014

अरे माँ , तू भी ना !



माँ कभी बड़े शहर नहीं आई , पर पोते का प्यार उसे पहली बार राजधानी तक खींच लाया । एयरपोर्ट के रास्ते के दोनों ओर पसरी आसमान की ऊंचाइयों को छूती गगनचुंभी अट्टालिकाएं को देख विस्मृत हो उठी !
"कितने धनी  है ये लोग, जिनके पास है सैकड़ो सीखचों वाले  ये ऊँचे ऊँचे किले , इतने ऊँचे कि ताड़ भी नाटा है ,चाँद भी इन मुंडेरों पे अटक अटक कर जाता होगा । कितने हवादार ,मरियल से मरियल हवा का झोंका भी गाता गुनगुनाता गुजरता होगा । मक्खी मच्छर तो ऊपर तक पहुँचते भी न होंगे !"

" वैसे इतनी ऊंचाई पे गर्मी ज्यादा होती होगी या कम ? ऊपर से नीचे झाँक इन लोगो को डर नहीं लगता होगा ?" माँ के मन में अनगिनत सवाल थे ।

बेटे ने समझाया " माँ ये किसी एक धन्नासेठ का किला नहीं है और  जिन्हे तू सीखचे बोलती है न , वो अपार्टमेंट है अपार्टमेंट । शहर के हर कमाते हाथो का पहला सपना ! "

" और ये सपना महंगा है माँ ,इतना महंगा कि पूरी जवानी बैंक में गिरवी रखनी होती है "


फिर बेटे ने माँ को विस्तार से सुनाई अपार्टमेंट्स की जादुई दुनिया की कहानी,हवा में लटके घरोंदों की कहानी ।


पर माँ ने हवा में बंधे उन सपनों को घर की संज्ञा देने से इंकार कर दिया " वो घर कैसा जिसमे ना अपनी छत, और ना अपनी जमीन और  दीवारे भी परायी !बस हवा की एक गाँठ ही तो है "!

" वो कैसा घर, जिसके आँगन के बीचोबीच में तुलसी का मटियाला घेरा नहीं ,वो कैसा बसेरा जिसके सिरहाने पर नीम का पेड़ नहीं और ना  ही ऊँचा ,पड़ोसियों को लजाता चबूतरा! 
वो कैसा घर , जिसकी दीवारो पर बूढ़े,अनुभवों  हाथो ने गेरू से जोगी जोगन न काढ़े हो ,वो कैसा घर जिसकी छत पर सूखते आम के आचार के जार न हो और खटिया पे बिखरी बड़िया न हो ।बस हवा की एक गाँठ ही तो है !"

कार की अगली सीट से पीछे मुड़ पिता जी ने कहा " री ,निपट देहाती! , ये तेरा गाँव है क्या , शहर में जगह की कमी है सो यही साधन है , यही व्यवस्था है और इसी में निष्ठा रखना और इसी को अपना सपना बनाना तर्कसंगत है । भविष्य तर्क संगत करने में है  ,ज़माने की रफ़्तार पकड़ चलने में है। तेरी बातो में भावना है , यथार्थ नहीं । भावनाओ से,जज्बातों से कहानी किस्से बनते है ,घर नहीं !"

"तू कीमत जानती है इन घरो की , आदमी जवानी से बुढ़ापे तक कोल्हू के बैल सा पिलता है , तब सधता है ये सपना , बिरले है वो खुशनसीब,जिनकी  मुठ्ठियाँ छूती है अट्टालिकाओं में बसे सपनो की चाबियाँ "

माँ पिता जी से प्रतिवाद नहीं करती ,बस धीमी आवाज़ में, बेटे के सिर  पर हाथ फेर बोली " बेटा तू मत बसियो ठगियों के इस देस में ,जहाँ हवा बेच देते है ठेकेदार और ख़रीदते है खरीददार !तेरी मेहनत की बूंदो से जब झोली में कुछ वजन जमा हो जाये तो तू अपने गाँव से बाहर वाली काले डामर की सड़क पे बनाना अपना घर । सीधा साधा सा छोटा मोटा सा घर , जिसमे छत  भी अपनी हो , तल भी अपना ! उसके आँगन में मैं  अपने बूढ़े हाथो से रोपूंगी तुलसी और ताज़ी लीपी  दीवारो पे काढूँगी गेरू के जोगी जोगन!"

"क्योंकि घर चाहे छोटा हो या बड़ा ,दूर हो या पास ,बाजार में हो या निर्जन में , वो बना हो भावना और प्यार के ईंट गारे से ।उसके कण कण का तू हो सम्राट,बस उस नीली छतरी वाले के बाद ।बेटा , तर्क को तू व्यापार के लिए बचा के रखना । "

" अरे माँ ,तू भी ना .… कितनी भोली है। … हम्म ,पर सच ही कहती है! " बेटे के मुँह  से निकला था।  विंडो सीट पे बैठी बहू ने  टेढ़ी निगाह से माँ बेटे को सिर्फ देखा भर । कुछ कहना चाहा था पर कहा नहीं । वो कहेगी जरूर किसी दिन ,जब कभी नोकझोक में उड़ेंगे इतिहास के पन्ने,और माँ का किरदार आएगा विचार में , प्रहार में!

हाँ ,बेटा उस दिन भी कहेगा " मेरी माँ , भोली है,पर सच ही कहती है ! "












शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

यूँ ही चलते फिरते

बड़ी अलसाई सुबह है जी आज । रात को बकार्डी से तरबतर होने के बाबजूद जबरन आइसक्रीम खिला दी थी दोस्त ने । शपथ के साथ खायी थी कि आँधी आये या तूफ़ान ,शनिवार की सुबह लम्बी जागिंग के साथ ही शुरू होगी । है कोई अंदर जो लड़का रहना चाहता है ,जवान जज्बाती आशिक़ सा ! और आज शक्ल पे ठन्डे पानी के छींटे तक मारने की मशक्क़त नहीं हुई है , बस जा चिपका हूँ बगल वाले फ़ूड कोर्ट की हिंदुस्तानी दुकान पर । दुकान पे काम करने वाला लड़का अब पहचानने लगा है । सांवला सा इकहरे हाड का लड़का है ,मंझले कद का ,बाल बढ़ाये है शौकीनी में । पच्चीस छब्बीस का है हँसमुख,विनम्र ,थोड़ा शर्मीला ।

बूढी चीनी दादी की व्हीलचेयर को ढ़ेलती एक युवती आई है ,हिज़ाब में । इन्डोनेशियाई केयरटेकर है शायद!
बड़ी बड़ी कटार सी आखें है काजल के  डोरे से बंधी हुई ,गोल नाक ,शरीर भरा भरा सा है,भरपूर गोलाई युक्त । चेहरे पे रौनक है ,उम्र यही कोई बाइस तेहिस की अल्हड , यौवन उमंग के दौर में है!  पराता बनाने वाले लड़के की आँखे  यकायक ख़ुशी से चमक उठी  है । मुस्काने बिखर रही है दोनों ओर से । दोनों एक दूसरे को जानते है ,शायद बड़ी अच्छी तरह,दिल की गहराईयों तक ! आखें रह रह बंध रही है,नाच रही है और फिर थोड़ा बहुत इधर उधर देखने का दिखावा सा होता है । लड़के के हाथों में बिजली सी आ गयी है यकायक  ! एग पराता को बड़ी ही कलाकारी से पलट रहा है ,आशिक़ मोर बन गया है ,नाच नाच मोरनी का मन मोह रहा है । और उसका दिल गा रहा है कोई तमिल नगमा । प्यार का कोई फव्वारा सा फूट पड़ा है उधर,उसके छींटे मुझ तक छिटके है । उस आशिक़ के प्रेमगान को मैं सुनना चाहता हूँ और उस माशूका के नगमे को भी!

उनका प्यार चौकन्ना  भी है ,जंगल में हिरणों के जोड़े जैसा । कोने वाली चेयर से मौन प्रेमप्रदर्शिनी का लुत्फ़ उठाती छोटी आँखो को भाँप लिया है दोनों ने ! हिज़ाब ने हया का पर्दा ओढ़ नज़रे झुका दी है ,पर लड़के का प्रेम निर्भीक है,  हर शंका ,हर विघन से दो चार होने को तत्पर !

'सब ठीक है ' हलकी मुस्कान से मैंने उसकी थोड़ी बहुत हिचक भी हर ली है ।
 तमिल और भासा इंडोनेशिया का ग़ज़ब का मिलन है । मल्टी कल्चरिस्म का एक सुखद नमूना है ये ।
प्यार की सचमुच अपनी भाषा होती है , जो सब जगह बोली समझी जाती है चेन्नई की मरीन ड्राइव से पूर्वी  जावा के जंगलो के पार बसे गाँवो तक में ।
आह्ह ,दिल जवान सा हो गया है ! रात की बकार्डी का असर बाकी  है शायद अभी तक !

सचिन कुमार गुर्जर                                                     
 -सिंगापुर द्वीप प्रवास के संस्मरणों में से

शनिवार, 13 दिसंबर 2014

शर्मा फैमिली और विलायती बोतल


यूँ तो शर्मा जी  ज़माने से पीते आ रहे है पर उन्हें शराबी कहना बेईमानी होगा । वो यूँ , क्योंकि उन्होंने जब भी पी है , शौकिया ही पी है और हद में रहकर पी है । गरम जवानी के दिनों से लेकर उम्रदराज़ी के दिनों  तक , मज़ाल है कि किसी ने एक भी बार शर्मा जी को नशे की गफलत में देखा हो । शराबी उसे कहा जाता है जो इस कदर मदिरा प्रेमी होता है कि अपनी दुनियादारी जूते के तल्ले पे रख छोड़ता है । शर्मा जी ने अपनी दुनियादारी की एक एक जिम्मेदारी को बखूबी निभाया है ।
 हाँ लेकिन वो  पीते उस ज़माने से ही रहे है!

'ब्लैक एंड वाइट ' के उस ज़माने में कभी कभार जब कोई जिगरी दोस्त या रिश्तेदार आ जाता तो कच्चे ,मटियाले दालान के ऊँचे चबूतरे पे महफ़िल जम  जाती,मसालेदार बसंती को अंटी में दबाये चखने का इंतज़ार होता ।
शर्माइन सुलगती तो थी पर शर्मा जी के कभी कभार के इस शगल को बर्दाश्त कर लेती थी । शीशे के मर्तबान से पुराने ,सूखे आम के अचार की कुछ फाखें और नमक में सनी ताज़ा प्याज की गोल गोल कतरने कटोरियों में रख अपने लड़के को दालान भेज देती । सरकंडों के मूढ़ो पे जमीं चौखड़ी के बीच में पड़ी चारपाई मेज का काम करती थी , लड़का जब जब चखना खटिया पर रख वापस जाने को मुड़ता ,शर्मा जी उसे रोकते और कहते 'देखो बेटा ,ज़िंदगी के किसी मोड़ पे अगर दारु पीना भी, तो बस दवा माफिक पीना , ये असुरा है असुरा , इस अंगूर की बेटी से ज्यादा दिल्लगी करोगे तो उल्टा  तुम्हे पी जाएगी !'

शर्माइन भले ही दूर उसारे में तरकारी में छौंक लगा रही होती पर कान उसके वहीं होते !

 'पीना ही क्यों है जी इस करम जली को, इस सुरसा ने  बहुतो के घर बर्बाद किये है ! ' बिना चूके  शर्माइन इस बात को हमेशा जोड़ देती थी ।



उदारवाद के छींटे उस छोटी बस्ती तक भी पहुंचे ।वो दालान , वो उसारा जमींदोज़ हो पक्के मकान में तब्दील हो गया । ऊँचे चबूतरे की जगह अब  वाल पुट्टी से चिकनाई दीवारों वाली बैठकी ने ले ली है । उस बस्ती के बहुते लौंडे पढ़ लिख नौकरी पैसा हो गए है । शर्मा जी का लड़का भी विलायती फर्म में नौकर हो गया है । आप इसे मेहनत कहिये या किस्मत कहिये या स्वाभाविक  परिवर्तन कहिये ,पर उदारवाद के इस दौर में उस बस्ती में भी एक तबका खड़ा हो गया है जिसने हिचकोले खाते हुए मसालेदार से अंग्रेजी तक का सफर तय किया है ।एक अलग क्लास खड़ा हो गया है अंग्रेजी पीने वालो का क्लास !

शर्मा  जी को अब देसी मसालेदार हज़म  नहीं होती , गले में खरांस हो जाती है , पेट अपसेट  हो जाता है, कै होने को होती है । हाँ , रॉयल स्टैग , बैगपाइपर जैसे किफायती अंग्रेज़ीदा ब्राण्ड अपच नहीं है । अब सब रिश्तेदार ,यार दोस्त जानते है कि शर्मा जी सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी ही पीते है !

शर्मा जी आज भी उतने ही जिम्मेदार इंसान है । 'शर्मा एंड फैमिली ' की ब्रांड मेकिंग और शाख  बढ़वार की जिम्मेदारी को समझते है । लड़का विलायत जाता रहता है ,ठीक ठाक कमाता है पर शर्मा जी खुदमुख्तार है , कुछ नहीं मांगते ।

हाँ , पिछली बार बेटा जब विदेश गया था तो लौटते हुए एक अच्छी सी विलायती शराब की बोट्ली लाने की दुर्लभ इच्छा जताई थी उन्होंने !वापस आकर आज्ञाकारी बेटे ने 'ग्लेनफ़िद्दीच सिंगल माल्ट व्हिस्की ' ' १२ साल पुरानी वाली ' लाकर शर्मा जी के हाथ में थमा दी थी ।

ना ना ना ! उस महंगी विलायती शराब मंगाने के पीछे शर्मा जी का निज स्वार्थ न था वो तो  बैगपाइपर व्हिस्की ' 'एक्सपोर्ट क्वालिटी वाली ' से खुश थे !दरअसल  ये उनकी 'शर्मा एंड फैमिली ' की ब्रांड मेकिंग की एक कवायद भर थी ।आल्हे के एक कोने में ग्लेनफ़िद्दीच की महंगी बाटली को सहेज, शर्मा जी गहन चिंतन में पड़  गए । उनकी नज़र में रसूख वाले ऐसे कई लोग थे जिनके लिए उस विदेशी बोतल का न्यायोचित उपयोग हो सकता था । बगल के कसबे से सत्तारूढ़ पार्टी का एक लोकल नेता , जिससे बेहतर सम्बन्धो का फायदा होता , या फिर जान पहचान का थानेदार !
हाँ , हलके का अमीन भी फेरिस्त में शामिल था , उससे जमीन के कागज़ों का कुछ काम अटका पड़ा था ।

हफ्ता बीता , महीना बीत गया , शर्मा जी उलझन को सुलझा ना पाये । बोट्ली पड़ी रही ,लबालब ,बिना किसी कद्रदान के !

संयोग से उन दिनों दूर के दो रिश्तेदार आ टपके जो इंसान तो बुरे ना  थे पर मदिरापान की लत के चलते आवभगत का सौभाग्य कम ही पाते थे।  उन बेचारों का कोई ऐसा रसूख भी था कि जिसे खाद पानी देने से कुछ हासिल होता ।शराब उनकी खुराक में थी सो कच्ची,मसालेदार,महुआ ,बसंती जो भी मिल जाये उसी को प्रेम भाव से स्वीकार कर  शिकायत न करते थे ।शराब पीने की लत आदमी को हम्बल बना देती है , न कोई खाने पीने को लेकर नकचढ़ी ,न किसी और घणी लल्लोचप्पो की आकांक्षा ! बस मूल चीज़ का साधन हो जाये !

 जिस तरह 'दाने दाने पे खाने वाले का नाम ' लिखा होता है वैसे ही हर बोतल ,हर अध्धे ,हर पव्वे पे पीने वालो का नाम लिखा होता है ।संयोग पे अगला संयोग ये था कि उस शाम को शर्मा जी घर न थे ।  लड़के ने शाम के खाने से पहले महीने भर से पड़ी उस गेलफीडीज़ की बोट्ली को उन मदिरा प्रेमी आत्माओ के आगे परोस दिया ।
 बड़ा ही अप्रत्याशित क्षण था वो ! अविश्वास के धरातल से सौभाग्य के अहसास तक आने में उन आत्माओं को काफी समय लगा । माहौल को और भी अद्धभुत बनाने को लड़के ने बोट्ली को घुमाते हुए बताया कि ये वो दारु है जिसे बड़े बड़े अँगरेज़ पीते है और इसके बनने के बाद इसे बारह साल तक गोदाम में पुरानी होने के लिए रखा जाता है ।

उसके बाद तो वहाँ भावनाओं का समंदर सा बह चला । दो पैग गटक आँसुंओं का दरिया बह चला । फिर शिकायतों , लानतो , मन्नतो का दौर चला । बार बार जतावा दिया गया कि शर्मा परिवार उन्हें कुछ समझे या न समझें , वे उस परिवार को अपनी जान से भी बढ़कर मानते है ।देसी घी से तर गरमागरम फुल्के आते जाते थे और विलायती शराब में तर आत्माओं के उदर में उतरते जाते थे । बड़ी लम्बी और बड़ी भावुक शाम थी वो !

अगली सुबह शर्मा जी की नज़र बैठकी के कोने में उपेक्षित पड़ी खाली बोतल  पर  पड़ चुकी थी , पर वो कुछ न बोले ,बस एक ठंडी सी ,दबी सी आह भर के रह गए !छुट्टियों से वापस लौटते हुए बेटे ने चरण छू प्रस्थान की इजाज़त मांगी तो शर्मा जी ने आशीर्वाद के बाद जोड़ा ' सुनो , आगे से कभी ये महंगी शराब बराब मत लाना , पैसे की बर्बादी है '। उन्हें गुस्सा था ,उनकी नज़र में जिस महंगे रतन का इस्तेमाल परिवार की शाख बनाने को होना था ,उसका ये तुच्छ प्रयोग उसे नाली में बहाने जैसा था ।


पर इस बात को वो लड़का ही जानता है , उन  भावुक मदिराप्रेमी आत्माओ ने उस दिन के बाद से जब भी, जहाँ  भी मदिरापान किया है उस विलायती बोतल  को याद किया है और 'शर्मा एंड फैमिली  ' के बढ़ते रुतबे का यशोगान किया है । लड़के की नज़र में विलायती बोतल  का उससे बेहतर इस्तेमाल हो ही नहीं सकता था ।










बुधवार, 3 दिसंबर 2014

शाबाश ! यू आर अ सॉलिड कंट्रीब्यूटर

आज मौसम  बड़ा ही अच्छा है । नन्ही नन्ही बुंदियाँ बरस रही है । ऐसे मौसम में तो बस एक खटिया हो और उस पर खेस तानकर टाँग पसार सोने को  मिल जाए तो समझो जन्नत मिल जाये !
मन होता है कि सामने वाली कांच की खिड़की तोड़ के बाहर निकल जाऊ और शर्ट को कमर से लपेट दूर तक बारिश में भीगता भागूँ  ,ऊँची आवाज़ में गाता जाऊं ।

सामने की बिल्डिंग में बड़े बड़े लाल ,स्पष्ट अक्षरो में लिखा है " हनी वैल " ।
शायद उधर बसने वाली सारी आत्मायें शहद के कुओं में गोते लगाती होंगी , हर कोई  बताशे सा मीठा बोलता होगा ।
सुन्दर सुन्दर हसीन परियाँ  होंगी जो हर बात बेबात पर मुस्कुराती होंगी ,हर छोटे बड़े काम पर मैनेजर शाबाशी देते होंगे और चमच्च भर शहद चटाते होंगे । होदे बढ़ते होंगे , मेहनताने बढ़ते होंगे !


या फिर उधर भी साल में  एक बार ही  पड़ती है  कंधे पर धाप और एक उवासी लेती आवाज़ कि 'सुनो ,शाबाश !… यू आर अ सॉलिड कंट्रीब्यूटर'
केवल और केवल एक सॉलिड कंट्रीब्यूटर!









अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...