लम्बे , निष्ठुर , अंधियारे शीत के थपेड़े झेल निष्प्राण लता बसंत के पहले सूरज को देख बलबती हो उठती है । बसंत के पहले सूरज में शीत की निष्ठुर ठिठुरन को काटने का माद्दा नहीं होता , सूरज का तेज लौटने में अभी समय होता है । लता में नवप्राण बदलाव के विश्वास और भरोसे ने फूँके होते है । बसंत की पहली किरण उस बदलाव का अग्रदूत होती है|
अथाह समुद्र में भटकी नाव के सवारो को दूर क्षितिज के जोड़ पर जमीन की रेखाएँ दिखने भर से किनारा हाथ नहीं लग जाता । हाँ , दूर जमीन की लकीरे उनकी बाजुओ में फिर से बल विद्दुत जरूर भर देती है ।किनारा अब दूर नहीं ।
पहली बार राजधानी की सर्द हवाओं में बदलाव की गर्माहट का अंश है । एक आस है , एक किरण है जो आने वाले बसंत की अनुगामी जान पड़ती है । निर्बल को संबलता का अहसास हुआ है , बाहुबलियों को भेद्यता का आभास हुआ है । सिंहासन हिले है ।
'आप ' की सरकार अपने चुनावी घोषणापत्र का अक्षरशः पालन कर पायेगी या नहीं , ये तो भविष्य के गर्भ में है । हाँ ,बदलाब की हवा अब निश्चित बह चली है ।
हे परमेश्वर , बदलाव की हवा को दिल्ली तक न सीमित रखना । इस हवा को आँधी कर देना , झंझावात कर देना और बहाना यमुना के उस पार, दूर दूर तक खुले मैदानो में ।
बहाना मेरे गाँवों के खलियानों में, मेरे शहरो के गलियारों में और उड़ा ले जाना उन सब सत्ता लोभी ,स्व अनुशंसा में डूबे बाहुबलियों को जिन्होंने हमे बना छोड़ा है सिर्फ अगड़ा और पिछड़ा , ऊँचा और नीचा , हिन्दू और मुसलमान ।
"हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए , इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज ये दीवार परदो की तरह हिलने लगी , शर्त थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर ,हर गली में , हर नगर हर गाव में , हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं , मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कही भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए। "
ध्रुव को बेहतर सामाजिक परिवेश में बढ़ता देखने की अभिलाषा में कुछ गलत तो नहीं ।
अथाह समुद्र में भटकी नाव के सवारो को दूर क्षितिज के जोड़ पर जमीन की रेखाएँ दिखने भर से किनारा हाथ नहीं लग जाता । हाँ , दूर जमीन की लकीरे उनकी बाजुओ में फिर से बल विद्दुत जरूर भर देती है ।किनारा अब दूर नहीं ।
पहली बार राजधानी की सर्द हवाओं में बदलाव की गर्माहट का अंश है । एक आस है , एक किरण है जो आने वाले बसंत की अनुगामी जान पड़ती है । निर्बल को संबलता का अहसास हुआ है , बाहुबलियों को भेद्यता का आभास हुआ है । सिंहासन हिले है ।
'आप ' की सरकार अपने चुनावी घोषणापत्र का अक्षरशः पालन कर पायेगी या नहीं , ये तो भविष्य के गर्भ में है । हाँ ,बदलाब की हवा अब निश्चित बह चली है ।
हे परमेश्वर , बदलाव की हवा को दिल्ली तक न सीमित रखना । इस हवा को आँधी कर देना , झंझावात कर देना और बहाना यमुना के उस पार, दूर दूर तक खुले मैदानो में ।
बहाना मेरे गाँवों के खलियानों में, मेरे शहरो के गलियारों में और उड़ा ले जाना उन सब सत्ता लोभी ,स्व अनुशंसा में डूबे बाहुबलियों को जिन्होंने हमे बना छोड़ा है सिर्फ अगड़ा और पिछड़ा , ऊँचा और नीचा , हिन्दू और मुसलमान ।
"हो गयी है पीर पर्वत सी पिघलनी चाहिए , इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज ये दीवार परदो की तरह हिलने लगी , शर्त थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर ,हर गली में , हर नगर हर गाव में , हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं , मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कही भी आग लेकिन आग जलनी चाहिए। "
ध्रुव को बेहतर सामाजिक परिवेश में बढ़ता देखने की अभिलाषा में कुछ गलत तो नहीं ।
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