सोमवार, 24 दिसंबर 2012

पुरुषत्व का बोझ




मेरे गाँव के एक सिरे पे मूला बागवान का एक भरा पूरा परिवार बसता  है । हालाँकि मूला  को दुनिया छोड़े  एक दशक से ज्यादा बीत गया है , पर ये उसके रोबीले व्यत्कित्व का ही कमाल है कि  आज भी लोग उस कुनवे को मूला के नाम से ही जानते है ।

मजबूत व्यतित्व था मूला का । कद तो मझला ही था । पर बड़ी बड़ी घुन्दीदार मूछे , बड़ी बड़ी आँखे ,गठीला बदन उसे मजबूत व्यक्तित्व का स्वामी बनाते थे ।
जेठ आषाद  की तपती दुपहरी में हल चला चल कर लोहे जैसा फौलादी जिस्म बना लिया था मूला ने ।
सीना चौड़ा करके चलता , सफ़ेद फ़ैत  की गांधी धोती में निकलता ,तो किसी दंगल के पहलवान से भी अब्बल दीखता था ।आवाज़ ऐसी कड़कदार, कि सामने वाला कुछ भी बात करने से पहले दो बार सोचता ।

बड़ी बिरादरी के लंबरदारो का मूला पे तिल में सफेदी के बराबर भी असर न था ।
स्वाभिमान तो उसमे कूट कूट के भरा था ।खुद की  पांच  एकड़ उपजाऊ ,सिंचित जमीन थी । तीन तीन जवान हट्टे कट्ठे बेटे थे ।ऊँची ठाट के बैलो का जोड़ा , खेती बाड़ी का सारा  साजो सामान था । सूदखोर बनिए से दूर दूर का वास्ता भी न था । कुल मिला के सम्रद्ध  था मूला ।
सम्रदी ,सम्पन्नता स्वाभिमान पैदा करती है । मूला में स्वाभिमान  ठसाठस  भरा था ।
अपनी मूछो  की खातिर मूला जान ले भी सकता था , दे भी सकता था ।


बड़े लड़के की शादी तो हमारी याद से पहले ही हो गयी थी । हाँ , मझला लड़का हमसे कुछेक  साल ही बड़ा था ।
उसकी शादी हमारी याद में ही हुई थी ।इकहरे हाड का होता था मंझला डोरीचंद ।
शादी के समय पे मुछे भी ढंग से न उगी थी ।गाँव के ही एक बुजुर्ग  ने पास के कसबे में अपनी जान पहचान वालो के यहाँ से शादी करा दी । लड़की डोरी से उम्र में बड़ी थी । कद काठी में भी भरपूर । डोरी तो एकदम बबुआ लगता था उसके सामने ।
शादी के दो चार महीने तो सब ठीक ठाक चला , पर उसके बात कुछ खटपट सी रहने लगी ।
लड़की का बाप कसबे में दुकानदार था , लड़की ने कभी खेती बाड़ी  का काम छुआ भी न था ।

कई बार  डोरी की पत्नी रूठ के  मायके भी चली गयी , पर बाद में डोरी  मना लाता ।

मूला ने पति पत्नी की छोटी मोटी  लड़ाई समझ कभी ध्यान न दिया । पर गारे इंट  के छोटे कोठरे में डोरी और उसकी पत्नी का झगडा आम हो चला था ।हाथापाई हो जाया करती थी । बात किसी तरह दबी रही ।

पर एक दिन इसी रोज की  खटर पटर के बीच डोरी की  माँ  ने डोरी की चीख सुनी । लपककर पहुंची तो देखा कि  दोनों कुश्तम्कुश्त  हुए है । डोरी शरीर का हल्का था । उसकी पत्नी उसके  ऊपर चढ़  उसका गला दबा रही थी ।
डोरी की माँ  ने उसे टांग पकड़ कर खीच अलग किया ।मूला को पता चला तो किसी तूफ़ान की तरह फट पड़ा । डोरी  को जोरदार तमाचे रसीद किये।
हर दिन की ये रार अब उसकी बर्दास्त   से बाहर  हो चली थी । बहू  को सुबह  मायके जाने को तैयार होने का हुकम बजा अपना हुक्का गुडगुड़ाने   चला गया ।उसे लगा , दो चार दिन मायके में रहेगी तो अपने आप अकल  ठिकाने आ जायेगी । अगली सुबह  डोरी उसे मायके छोड़ आया ।

कुछ दिन बाद डोरी की माँ ने उसे बहला फुसलाकर बहु को लाने भेज दिया ।  डोरी से बहुत पैर पीटे , वो नहीं जाना चाहता था, पर मूला के डर  के मारे चला गया ।
ससुराल में डोरी की खातिर तबज्जो की वजाय जूते चप्पलो से आव भगत हुई । उसकी पत्नी की  कच्ची बातें सुन डोरी का साला  अपना आपा खो बैठा  और डोरी की जमकर पिटाई की ।
पिटा हारा   डोरी लौटा आया । मूला गुस्से के मारे आग बबूला । इज्ज़त में गुस्ताखी उसे मंजूर न थी ।
पर लोक लाज  बस सब्र का घुट पीकर बैठ गया ।
घर वालो को धमकाते हुए बोला " खबरदार जो किसी को कानोकान भी खबर हुई  , अपने काम काज पे ध्यान दो ।'

डेढ़  दो माह पीछे  मूला ने  शादी के बिचोलिए  रिश्तेदार को लानतो के साथ डोरी की ससुराल भेजा ।
पर ये क्या , माफ़ी की वजाय  लड़की का बाप आग बबूला हो  मूला को ही खरी खोटी सुनाने लगा ।
कहेलवा भेजा  ' मूला खुद आये । चार पंचो  के  सामने नाक रगड़ माफ़ी मांगे , तब लड़की को भेज सकते है , नहीं तो मुकदमा करेंगे "
सन्देशा मूला तक पहुंचा । मूला रौबीला , जुझारू जरूर था पर जानता था कि  घर  गर्हस्ती  के मामलो को आपसी बातचीत से ही सुलटाया जा सकता है ।
गाँव  के सरपंच के यहाँ  पंचायत जुटी । दोनों पक्ष के लोग एकत्रित हुए । पंच  परमेश्वर होता है , जो फैसला होगा, दोनों पक्ष मानने को तैयार हो गए ।
आरोप प्रत्यारोप लगे । कई बार हाथापाई की नौवत भी आई , पर पंच  मुद्दे को गंभीरता से सुलझाने में लगे रहे। डोरी से पुछा गया , तो वो फफक पड़ा । ' मैं  नहीं रहूँगा उसके साथ , वो मुझे पीटती है ।"
सभा में पीछे खड़े कुछ लफंदर जोर जोर से हंस पड़े । कोई जोर से बोला ' अबे साले , मर्द होके औरत से मार
खाता है ।
'नहीं रखूँगा मैं उसे , चाहे जान भी देनी पड़ जाए ।' डोरी की बर्दास्त  का घड़ा भर चूका था । आज उसके सामने
मुसीबत से जान छुड़ाने का मौका था ।

मूला को काटो तो खून नहीं । भरी सभा में  डोरी ने उसका पडला हल्का कर दिया था ।
मर्द के कंधो पे मर्दानगी का बड़ा भार होता है । अपेक्षाये होती है , मिथक होते है ।  मर्द को दर्द नहीं होता ।
जोरू से पिट जाने का कबूलनामा  जहर का प्याला पीने से भी ज्यादा कठिन और दुखदायी होता है ।
डोरी की सुबकियो ने मर्दानगी के उस मिथक पे गहरी चोट कर दी थी । किसी ने कह दिया ' डोरी का इलाज़ कराओ ,बहु बाद में लेके आयों '।

मूला को तो मानो सांप सूंघ गया हो । अहम् पे चोट हुई थी ।बस कुछ न बोला , पंचो  की हाँ  में हाँ  मिलाता चला गया ।
बहु आने को तैयार न हुई । कुछ रास्ता न देख पंचो  ने विवाह का सारा सामान  मय  जुर्माने के लौटने का हुक्म दिया । मामला निपट गया ।


 घटना के बात डोरी बदल गया । गाँव के रास्ते से निकलता तो किसी से भी बात न करता । गर्दन झुकाए निकल जाता । उस पर मर्दानगी की फजीहत  करने का आरोप जो लगा था ।
पर वो मन में ठान चूका था की वो एक मर्द बनके रहेगा ।गाँव के लफंगों ने उसे दारु और मुर्गा मछली खाने की सलाह दी । आये दिन वो मांस मछली खाने लगा ।
जुमे की पैठ के  हकीम से बल बर्धक चुरन का सेवन  करने लगा । घर में घी दूध की कमी न थी । खूब दबा के खाता  और पेड़ के नीचे खाट  बिछा  सोया रहता । बड़े सदमे के बाद घर वालो ने भी काम कराने  में ढील दे दी थी । कभी कभार पास के कसबे की फैक्ट्री  में काम कर कुछ नकदी कमा  लेता और मदिरा पान कर लेता ।
चेहरे को रोबीला बनाने के लिए मूछें  मोटी  मोटी  रख ली ।
भगवान् जाने , ये मांस मदिरा का कमाल था या हकीम के चुरन का या निठल्लेपन का , पर एक साल में ही डोरी का काया कल्प हो गया । तोंद निकल आई थी । चेहरा बड़ा लगने लगा था । मुहँ में गुटका भरा रहता  तो उससे  गाल और भी सूजे सूजे लगते ।
शराब पीने में तो वो अब गाँव के बदनाम बड़े बड़े नशेड़ियो को टक्कर देने लगा था ।
शायद  ,मर्दानगी की फजीयत के  दर्द की दवा  ढूँढता  फिरता था ।  कल तक का शर्मीला डोरी अब किसी से लड़ाई झगडे से भी न डरता । अपने पड़ोसियों के साथ कई बार गाली गलोच कर चूका था ।

मूला की फजीयत भले ही हुई हो , पर बिरादरी में अभी भी उसके नाम का सिक्का  चलता था ।
समय बीता । डोरी की दूसरी शादी का प्रवंध भी हो गया ।इस बार बड़ी जांच परख कर सीधी  साधी मरियल सी  लड़की को ढूँढा । काल चक्र के थपेड़े झेल और मर्दानगी की फजीयत का दाग लिए घूमा डोरी अब बदल चूका था । एक साल बाद ही डोरी की पत्नी ने बच्चे को जनम दिया । मूला ने सारे गाँव में लड्डू  बंटवाये ।
दाग धुल गया था । मूला और डोरी के कंधे पे लदा  पौरुष  का  भार हल्का हो गया था ।

मूला अपना  कर्त्तव्य निभा परलोक चला गया । डोरी का आज भरा पूरा परिवार है । पास के कसबे में जाकर
नौकरी करता है । कभी कभी शराब में धुत  अपनी पत्नी की पिटाई भी कर देता है । पड़ोसियों को गाली बक लेता है ।आखिर वो अब सच्चा मर्द जो बन चूका है ।


 डोरी की कहानी इस बात का ऊधारण है की किस प्रकार पुरुष प्रधानं समाज एक व्यक्ति को  मर्दानगी के बोझ तले  दबा ,उसे अपने मूल स्वभाव को बदलने पे मजबूर कर देता है ।
'मर्द को भी दर्द होता है , मर्द की भी संवेदनाये होती है , कमजोरियां होती है । पर  मिथक और अपेक्षाओ तले दबे लोग पुरुषत्व  का  भ्रम ढोए चले जा रहे है  । मर्दानगी का बेताल कंधो पे उठाये पुरुष जाने अनजाने घरेलु हिंसा , नारी उत्पीडन , बलात्कार जैसे घनोने कुकृत्यो को अंजाम देता है ।


 * कहानी के पात्रों  के नाम काल्पनिक है ।










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