आपने कभी कोई चोर देखा है ? कोई जेबकतरा , उठाईगीर या कोई छोटा मोटा चोर उचक्का ?
अपवाद हो सकते है लेकिन अमूमन ऐसा होता है कि कोई भी ऐसा निकृष्ट आदमी रंगेहाथ पकडे जाने पर लज्जित महसूस करता है | लात घूंसे पड़ें या पुलिस के डंडे , ऐसे आदमी की गर्दन नीची ही रहती है | ये एक अलग बात है कि छुटकारा पा वो फिर से उन्ही कुकृत्यों में संलिप्त हो जाए | पर पकडे जाने पर लजायेगा जरूर |
हमारे लोकतत्र का नेता ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपनी हवस , लालच , सत्तालोभ का नंगा नाच करता हुआ पकड़ा जाए , उसकी चालीस चोरो की माल बॅटवारे को लेकर सर फुटब्बल की कहानी पब्लिक डोमेन में भी आ जाये , फिर भी वो किसी महंगे रिसोर्ट में विक्ट्री का "V" साइन वाला पोज़ ऐसे देगा , जैसे महाराज ने समाजहित में बड़ा ऊँचा झंडा गाढ़ दिया है |
देखि है कही आपने समाज सेवा को लेकर ऐसी सिर फुटव्वल ??
आप इस फोटो को देखिये और मुझे बताइये कि कोरोना की मार झेलते देश में , जहाँ हर दूसरा आदमी बेरोजगारी के मुहाने पे खड़ा है , जनमानस अवसाद से गुजर रहा है , इन लोगो ने कौन सा तीर मारा है जो ये विक्ट्री सिंबल बना रहे ? क्या इन्हे शर्मिंदा नहीं होना चाहिए कि इनकी हवस , ज्यादा से ज्यादा डकारने की छीना झपटी , जो अभी तक सत्ता के बंद , गुप्प गलियारों तक दबी ढकी थी , वो अब खुले मैदान में आ गयी है ?
हमे घोट कर पिलाया गया है लोकतंत्र , लोकतंत्र , लोकतंत्र |
असल में ये लोकतंत्र है ही नहीं , भीड़तंत्र है | सही लोकतंत्र एक लक्ज़री है जो चेतना के एक स्तर को पार कर चुके समाज के हिस्से आता है |
जरा सोचिये , जिस भीड़तंत्र में एक पव्वे के लिए , 500 की पत्ती के लिए, या महज ये सोच के कि फलाँ हमारी जात का है , कही भी ठप्पा लगा देने वाले वोट की ताकत , 'देश दुनिया की सोचने समझने वाले' आदमी के वोट के बराबर हो , वहाँ किस तरह के नेता सामने आएंगे ?
आप इसे गरीब -अमीर के खाँचो में रखकर नहीं , चेतना के स्तर के लिहाज से आंकिये |
डेमेगॉग समझते है न आप ? बस वही लोग सामने आते है |
सुकरात का लोकतंत्र से इन्ही कारणों से मोह भंग था |
प्लेटो की कृति 'रिपब्लिक ' में सुकरात का एक वार्ता उल्लेख है जिसने वो पूछता है कि यात्रियों से भरे जहाज को कौन चलाएगा , जहाज का कप्तान कौन होगा , इसका निर्णय किसको करना चाहिए ?
क्या जहाज के सभी यात्रियों को ?
या उन लोगो को जिन्हे जहाज चलाने का कुछ ज्ञान हो , हवा , दिशा , भूगोल का कुछ अध्ययन जिन्होंने किया हो , और जो ये जानते हों कि जहाज को सही दिशा में में ले जाने के लिए कौन सबसे होनहार कैप्टेन साबित होगा |
अपने तर्क को और आगे बढ़ा सुकरात कहता है कि एक डॉक्टर है और एक मीठे की दुकान वाला हलवाई |
अपना समर्थन बटोरने को हलवाई कहता है की देखो भाइयों ये इंसान तुम्हे कड़वे काढ़े देता है , तुम्हारे शरीर में छेद करता है , चीरे लगाता है , तुम्हारा खून निकाल लेता है , ये तुम्हारा भला कैसे हो सकता है !
मुझे समर्थन दो , मैं तुम्हे मिठाइयां , रेवड़ियाँ देता हूँ , मैं ही तुम्हारा हितैषी हूँ !
और देखो न , सचमुच मिठाइयां , रेवड़ियाँ बांटने वाले डेमागोग ही तो हम चुनते आये है |
बदकिस्मती कि ये दस्तूर जारी रहेगा | हाँ ,पार्टियों के नाम बदलते रहेंगे |
-सचिन कुमार गुर्जर
१३ जुलाई २०२०
अपवाद हो सकते है लेकिन अमूमन ऐसा होता है कि कोई भी ऐसा निकृष्ट आदमी रंगेहाथ पकडे जाने पर लज्जित महसूस करता है | लात घूंसे पड़ें या पुलिस के डंडे , ऐसे आदमी की गर्दन नीची ही रहती है | ये एक अलग बात है कि छुटकारा पा वो फिर से उन्ही कुकृत्यों में संलिप्त हो जाए | पर पकडे जाने पर लजायेगा जरूर |
हमारे लोकतत्र का नेता ही एकमात्र ऐसा प्राणी है जो अपनी हवस , लालच , सत्तालोभ का नंगा नाच करता हुआ पकड़ा जाए , उसकी चालीस चोरो की माल बॅटवारे को लेकर सर फुटब्बल की कहानी पब्लिक डोमेन में भी आ जाये , फिर भी वो किसी महंगे रिसोर्ट में विक्ट्री का "V" साइन वाला पोज़ ऐसे देगा , जैसे महाराज ने समाजहित में बड़ा ऊँचा झंडा गाढ़ दिया है |
देखि है कही आपने समाज सेवा को लेकर ऐसी सिर फुटव्वल ??
आप इस फोटो को देखिये और मुझे बताइये कि कोरोना की मार झेलते देश में , जहाँ हर दूसरा आदमी बेरोजगारी के मुहाने पे खड़ा है , जनमानस अवसाद से गुजर रहा है , इन लोगो ने कौन सा तीर मारा है जो ये विक्ट्री सिंबल बना रहे ? क्या इन्हे शर्मिंदा नहीं होना चाहिए कि इनकी हवस , ज्यादा से ज्यादा डकारने की छीना झपटी , जो अभी तक सत्ता के बंद , गुप्प गलियारों तक दबी ढकी थी , वो अब खुले मैदान में आ गयी है ?
हमे घोट कर पिलाया गया है लोकतंत्र , लोकतंत्र , लोकतंत्र |
असल में ये लोकतंत्र है ही नहीं , भीड़तंत्र है | सही लोकतंत्र एक लक्ज़री है जो चेतना के एक स्तर को पार कर चुके समाज के हिस्से आता है |
जरा सोचिये , जिस भीड़तंत्र में एक पव्वे के लिए , 500 की पत्ती के लिए, या महज ये सोच के कि फलाँ हमारी जात का है , कही भी ठप्पा लगा देने वाले वोट की ताकत , 'देश दुनिया की सोचने समझने वाले' आदमी के वोट के बराबर हो , वहाँ किस तरह के नेता सामने आएंगे ?
आप इसे गरीब -अमीर के खाँचो में रखकर नहीं , चेतना के स्तर के लिहाज से आंकिये |
डेमेगॉग समझते है न आप ? बस वही लोग सामने आते है |
सुकरात का लोकतंत्र से इन्ही कारणों से मोह भंग था |
प्लेटो की कृति 'रिपब्लिक ' में सुकरात का एक वार्ता उल्लेख है जिसने वो पूछता है कि यात्रियों से भरे जहाज को कौन चलाएगा , जहाज का कप्तान कौन होगा , इसका निर्णय किसको करना चाहिए ?
क्या जहाज के सभी यात्रियों को ?
या उन लोगो को जिन्हे जहाज चलाने का कुछ ज्ञान हो , हवा , दिशा , भूगोल का कुछ अध्ययन जिन्होंने किया हो , और जो ये जानते हों कि जहाज को सही दिशा में में ले जाने के लिए कौन सबसे होनहार कैप्टेन साबित होगा |
अपने तर्क को और आगे बढ़ा सुकरात कहता है कि एक डॉक्टर है और एक मीठे की दुकान वाला हलवाई |
अपना समर्थन बटोरने को हलवाई कहता है की देखो भाइयों ये इंसान तुम्हे कड़वे काढ़े देता है , तुम्हारे शरीर में छेद करता है , चीरे लगाता है , तुम्हारा खून निकाल लेता है , ये तुम्हारा भला कैसे हो सकता है !
मुझे समर्थन दो , मैं तुम्हे मिठाइयां , रेवड़ियाँ देता हूँ , मैं ही तुम्हारा हितैषी हूँ !
और देखो न , सचमुच मिठाइयां , रेवड़ियाँ बांटने वाले डेमागोग ही तो हम चुनते आये है |
बदकिस्मती कि ये दस्तूर जारी रहेगा | हाँ ,पार्टियों के नाम बदलते रहेंगे |
-सचिन कुमार गुर्जर
१३ जुलाई २०२०
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