उस बूढ़े आदमी का मर जाना बेहद जरूरी था। सात जात की खिचड़ी बस्ती में एक चिड़ी का बच्चा भी ऐसा ना था जो ये विचार रखता हो कि होरी बुड्ढा जीवत रहे! जनाना-मर्दाना , हर कोई उसे ऐसे देखता जैसे निढाल, दम तोड़ते मवेशी को गिद्ध|
पर वो बूढ़ा न मरता।
घसियारिनो के झुंड घास फूस जुटाने जंगल जाते तो एक दो जरूर कुढ़ती और धीमी आवाज़ में कहती" जुआन जुआन आदमी जा रहे हैंगे, इस बुड्ढे कु मरी न आती| "
तो कोई ठलोरा,लुखण्डर सामने के चबूतरे से दांत निपोरता कहता" इनकी तो फ़ाइल ही गुम हो गयी दीखे है भाभी!"
बूढा मैला ,फटेहाल दिन भर चबूतरे पर ,नीम की छांव में पड़ा रहता । ढीली सी मैली धोती में अपनी टांग सिकोड़े वो चित्त लेटा रहता। कोई बड़ा रास्ते से गुजरता तो गुस्से में ताना मार कहता " ओ दददा, धोती तो संभाल लय करो , बालक बच्चे निकले बढ़े हैंगे, तुम अपना सामान बिखेरे पड़े रओ हो दिन भर| "
बूढा उहूह की आवाज़ करता , फड़फड़ाता और अपनी धोती के इधर उधर भागते सिरों को अपनी टांगों के बीच मे घोस लेता, लाज के अंगों को ढांप लेता।
टाँगों में दम था ।पड़े पड़े बोर होता तो आस पास के घरो की चौखटों तक घूम आता। कोई चाय पिला देता ।आने जाने वालों से मांग के बीड़ी पीता रहता।
जिंदिगी चलती जाती , पर उसे मौत न आती।
होरी की मूँछे किसी पुरानी झाड़ू जैसी झाबेदार थीं, जो चेहरे से काफी आगे तक पहले तो सीधी आती थी और फिर अचानक नीचे की ओर मुड़ जाती थीं। गालो में दो बड़े बड़े पानी के पोखर जैसे गड्ढे थे जो मूछो के सिरों से जुड़े थे। आँखे बड़ी लेकिन हमेशा गन्दीली रहती थी। नाक किसी उम्र में ऊंची हठीली रही होगी पर अब थकी सी आगे से ढलक गयी थी। ज्यादा खाँसने से कंधे उचक गए थे। पेट किसी पतली लकड़ी की धाच सा मालूम होता था।
असल मे वो आदमी किसी ऐसी पुरानी सरकारी इमारत जैसा था जिसे कंडम कर खुद से गिर जाने के लिए वीरान छोड़ दिया गया हो।परिवार के बेटे, पोते पोती उसे अपनी जिंदगी का मैल समझते थे ।पर अपने हाथों गला कौन दबाये, उनकी यही ख्वाइश होती कि बस ऊपर वाला ही कुछ बहाना करे, विपदा से जान छूटे। पर उस बूढ़े की मौत पता नही कहाँ सोती थी।
सात घरो के फासले पर कथा का पाठ चलता था , चार पांच मानुस फर्श पर बैठे पंडित जी का वाचन सुने थे। घर की मालकिन जमाने को कोसती हुई घर मे दाखल हुई" सब से कह आई, सब टीवी देखे हैंगे। रांम नाम कौन सुने है आजकल। "
घर का मालिक बोला " पंडित जी ऐसा करो, शंख फूख दो एक बार जोर ते, जो धर्मी होगा , आय संगत करेगा।"
कोई पहुचा न पहुँचा, होरी बुद्धा पहुच गया।
पंडित जी ने कथागान किया :सुनो जजमान, राजा परीक्षित ज्यो ही महल से बाहर निकल रथ में सवार हो चले, एक भिखारी कही से रथ के नीचे आन मरा।
राजन बोले, हे इष्ट , मैं धर्म लाभ को निकला, ये कैसा अधर्म कमा लिया।
राज पुरोहित से परामर्श किया तो पुरोहित गंभीर हो बोले" हे राजन, विपदा बड़ी है। जिस काल में ये भिखारी कालगति को प्राप्त हुआ, उस घड़ी को पांडव काल से जाना जाता है। यानी के अगर उपाय न हुआ तो पांच मृत्यु होंगी, और फिर पांच पांडवो की भांति सभी आत्माये एक साथ परलोक की गामी होंगी।"
पंडित जी रुके, पोथी का पन्ना पलटा और फिर शुरू किया: राजा परीक्षित विचलित हुए और बोले, " चूंकि ये व्यक्ति मेरे रथ नीचे आ मरा। मैं दोषी हुआ। कुछ उपाय बताओ गुरु।
तब पुरोहित बोले" सोमवार की प्रातः में जिस वक्त सूरज आसामान का कलेजा फाड़ बाहर आता हो, पांच काली , दुधारी गायो का दान करने से आया काल टल सकता है।"
"प्रबंध हो जायेगा , पुरोहित जी" ऐसा कह राजा अपने इष्ट को प्रणाम कर चल पड़े।"
" धर्म श्रद्धा से चलता है" ऐसा कह पंडित जी ने अपनी दक्षिणा के करारे नोट जेब मे रख, खीर पूड़ी का भोज किया। होरी के भी भाग जागे, एक तो धर्म लाभ ,ऊपर से खीर पूड़ी। मालकिन ने पांच रुपए बीड़ी माचिस खातिर भेट दे दिए|
फसल काट किसान मजदूर खेत क्यारियों में पेड़ो तले सुस्ताते थे। लू के थपेडे ऐसे लगते थे जैसे गरम तवा खाल से छूआ दिया हो। नन्हे कुम्हार ने जैसे तैसे अपनी लंगड़ी घोड़ी समेत यूकेलिप्टिस के बाड़े में स्थान लिया। पसीने से लथपथ, ईंट भट्ठे की मिट्टी में कुर्ता पुता हुआ।
खेत के बटाईदार से पानी मांगा । हलक खुसक था, बेचारा मंजिल काट के आया था। उखड़ू बैठ पानी पीने लगा तो पीता ही गया, पीता ही गया। फिर एक ठों पीछे की ढाल लुढक गया। ज्यादा पानी पीए से उसका कलेजा डूब गया था|
अगली सुबह नन्हे का लड़का पंडित जी के घर से झल्लाता हुआ निकला " बेबकूफ समझो हो हमे पंडित, हम अपने आप कर लेवेंगे रसम पगड़ी। अरे, बूढ़े थे बाबा हमारे, कौन सी बुरी मौत मरे जो हम ये सब जतन करें।"
वो गरीब किसान मज़दूरों का टोला था। वहां इंसान का जीवन जितना बेरंग और फीका था ,मौत भी ऐसे ही सस्ती सी आती थी।
अब मटरू को ही ले लो। बेचारा अच्छा खासा खेत क्यारी का काम करके आया। नहाय धोय के लत्ता बदले।
बरामदे पे बैठ कढ़ी चावल खाता था । भूख जबर थी, जल्दबाजी में कढ़ी चावल का कुछ बड़ा गोसा ले लिया। साँस की नली में ऐसा गुच्छा लगा कि बेचारा वही लंबा हो गया। भोजन का थाल धरा का धरा रह गया, पंछी उड़ गया। दो चार जिक्र हुआ, फिर नर नार अपनी जिंदगियो की जदोजहद में उलझ भूल गए।
लेकिन जब जगता और उसकी घरवाली ने गृहकलह में एक साथ कीटनाशक पी लिया तो समूचे गाँव मे कपकपी सी दौड़ गयी। बड़े , समझदारों के मुतालवे हुए।
पंडित जी को बुला भेजा। बड़ी बैठक की घनी पाखड़ तले चार चारपाइयों पे गाँव के बड़े और गंभीर लोग बैठे।
गोद मे पोथी लिए पंडित जी कुर्सी पे बिराजमान ।
बड़े काका ने मूछो को अंगूठे से दबाया और चिंता सुनाई तो पंडित जी भड़भड़ा उठे" एक बात बताओ, उस दिना, जब नन्हे का लौंडा पूरे गाँव के सामने मुझे लालची और पता नहीं क्या क्या बका, किसी ने बूझ की उस दिन?"
" जे बताओ कि गाँव की भलाई से बड़ा काम है कोई मेरे ताई।" पंडित जी का गुस्सा जायज था।
बड़े काका बोले" देखओ पंडित जी, मानू हुँ। बात तुम्हारी जायज है,पर अब आगे का सोचो। दिशा काल का कुछ गणित करो। चार चार मानस उठ गए तीन महीना के भीतर!"
पंडित जी ने अपनी कुर्सी को आगे खिसका के बड़े काका की खाट से मिला दिया और फिर धीमे और गंभीर शब्दो मे बोले" देखो, पांडव काल मे गया है नन्हे। उपाय होता तो तभी होता, अब बात कब्जे से बाहर है। गऊ दान तभी का कारगर होता।" पंडित के ओठो के सिरों ले थूक जम गया था। ऐसा बोल उन्होंने तीनों खाटों पर अपनी नजर ऐसे घुमाई जैसे घूमती गर्दन वाला बिजली का पंखा।
करीब बीस जन होंगे, तीन तीन खाटें भरी थी, पंडित जी की बात सुन ऐसी मुरदाई सी फ़ैली कि सबसी साँसों की आवाज सुनी जा सकती थी। गाँव मे विपदा थी!
कुछ सोच समझ के सुझाइयो पंडित, बड़े काका ने ये कह सभा खत्म कर दी थी।
आदमी के अंगूठे के कटे नाखून जैसा चाँद था उस रात।
गुप्प स्याह रात के तीसरे पहर में दूर , साफ खलिहानों में गीदड़ों के झुंड हुडहुडाये " हुत हुत , हुती हाउ....।"
तो गाँव के किनारे से आवारा कुत्ते जबाब में रोये" आउ..आउ..उ।"
उस रात के सन्नाटे में एक आदम आवाज़ हुई" होरी लाल , सोओ हो क्या!"
चार आकृतियां , तीन पतली और लंबी और एक नाटी, खाट के चार पायो पे चार खड़ी थीं। झक सफेद चादर में सर से पाँव तक ढकी हुई।
कुछ जबाब ना आया तो सिरहाने की लंबी आकृति ने
हल्के से खाट को झटका" होरीलाल, सोये हो?"
कोई जबाब नही।
कुछ पल पीछे पायत खड़ी नाटी आकृति बड़े ही मीठे सुर में बोली, जैसे कोई कविता गाई हो" तुम्हारा दाना पानी पूरा हुआ होरीलाल । अब चलो।मोह न करो"
पर तमाम कोशिशों के बाबजूद वो आकृतियां बूढ़े के हलक से एक बोल न निकलवा सकी।
हाँ, नाटी आकृति की आवाज सुन उसने अपने दोनों हाथ खाट के किनारों से उठा अपने सीने पे जरूर जमा लिए।
सुबह सूरज ने पूरब दिशा को फोड़ा ही था।। बूढ़े के चबूतरे पे सिर ही सिर दिखते थे।
भीड़ को चीर जमनिया बूढ़े के पाँवों तक जैसे तैसे पहुची।
सफेद चादर पैरो में डाल बोली" दादा ओ दादा, कहा सुना माफ करियो हमारा। हमारे बड़े बूढ़े हुए तम, मेहर करियो।"
चबूतरे से जैसे ही अर्थी उतरी , मोहल्ले के चार नए कंधो ने भार अपने ऊपर ले लिया। तीन पतले , लंबे और एक बेहद नाटा!
आगे की ओर लगे लंबे जवान ने साथ मे चलते काका से रुआंसा हो कहा "कक्का ओ कक्का देखो तो पश्चिम से क्या गाढ़ी घटा का बादल उठा हैगा। मेह बरसेगा। पहुँच गए दादा हमारे। जाए लगाई दरबार मे हाज़िरी!
बड़े काका ने पंडित जी की तरफ देखा तो उनके चेहरे के भाव ऐसे थे जैसे किसी देव ने बड़े तूफान का रास्ता मोड़ दिया हो।
पांचवा आदमी जा चुका था!
-सचिन कुमार गुर्जर
11 मई 2019
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