शनिवार, 19 अक्टूबर 2024

अच्छा और हम्म


" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था | 

"अच्छा " पुरुष ने इतना भर कहा बस |  और ये 'अच्छा ' पत्थर लगाए जाने की क्रिया का स्वागत भाव न था | बनिस्बत इसके ये  इस बात की तसदीक था कि वह बेचारा अनभिज्ञ था | 

"मैं  पूछती हूँ कि भला क्या जरूरत है इस बर्बादी की | माँ बाबा के बाद वहाँ कौन रहेगा | " स्त्री का स्वर तीव्र से मध्यम की ओर चला गया था | उसके रोष में अब दर्द था | बिलाबजह , फिजूल की बर्बादी का दर्द | 

"हम्म " कुरेशिये की बुनाई के मेजपोश पर चाय का कप वापस रखते हुए पुरुष ने हामी भरी | 

"तुम्हे क्या लगता है , माँ बाबा के पास पैसा नहीं है | लाख दो लाख से कम लगेंगे क्या | देखते रहियो , सब का सब छोटे को जायेगा ! " 

"हम्म्म्म " पुरुष का जबाब पहले जैसा ही था , बस पहले से थोड़ा लम्बा | 

आप सोचेंगे , कि शायद पुरुष का कलेजा चूजे का है | स्त्री के तर्क की काट हो सकती थी | 

माँ बाप बूढ़े है तो क्या हुआ | जब अगड़ पड़ोस के सब घरों के आँगन में पत्थर लग गया है वे  भला कच्चे आँगन में क्यों रहे | फिर वे ये सब अपनी फसल की कमाई से ही तो कर रहे , हमे क्या हर्ज़ ? 

सब उनका ही तो है | और फिर उनके बाद गांव के मकान का मालिकाना हक़ में हम भी तो हिस्सेदार होंगे | 


लेकिन वजुआत दूसरी भी हो सकती हैं | हो सकता है इस तर्क वितर्क के खेल को पुरुष ने कई मर्तबा खेला हो और अब मन उकता गया हो | ये एक ऐसा खेल है जिसमे जीत हो ही नहीं सकती  | चीन के प्रसिद्ध मिलिट्री स्ट्रैटिजिस्ट 'सुन ज़ू' ने अपनी किताब 'आर्ट ऑफ़ वॉर ' में लिखा है , जिस युद्ध को आप जीत नहीं सकते , उसमे उतरिये ही मत |  

पुरुष के हाथ में 'हम्म ' और 'अच्छा ' ऐसी दो ढाल है जिससे वह युद्ध से बिना लड़े समूचा बच निकलता है | 


आप कितने गाँव खेड़ो से गुजरते हैं | जहाँ अब पक्के रंग रोगन किये हुए , ऊँचे चबूतरों के मकान पाते हैं | चबूतरे जिन पर संगमरमर के  पत्थर बिछे होते है  | दो चार कुर्सियां रखी होती हैं, कुछ गमले लगे होते हैं  | ये ऊँचे सजीले  चबूतरे इस बात का उद्धघोष होते हैं  कि परिवार अच्छा कर रहा है | 

इन ऊँचे चबूतरों के शहरी मॉडल पर बने मकानों के बीच में आप कोई जर्जर पुरानी हवेली पा जाएं , जिस पर सालों से पुताई न हुई हो , जिस के कंगूरों पर पीपल उग आये हों , जिसका आँगन कच्चा हो , तो आंगन में बैठे बूढ़े बूढी की  गरीबी पर तरस जाँच पड़ताल के बाद ही खाइयेगा | 

बहुत मुमकिन है उस घर का बेटा गाँव का सबसे होनहार लड़का हो | सबसे धनाढ्य भी | लड़का जो दुबई में प्रोजेक्ट मैनेजर हो और जिसके मुंबई और पुणे में दो दो फ्लैट हों |  लड़का जिसने इंजिनीयरिंग , मैनेजमेंट के गूंठ  तो सीखे हों पर 'हम्म' और 'अच्छा ' कह बच निकलने की कला से अनभिज्ञ हो | 


                                                                                         सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                                         सिंगापुर द्वीप 

                                                                                          २० अक्टूबर २०२४ 

 

शुक्रवार, 4 अक्टूबर 2024

सैडिस्टिक सुख


लिंडा से मेरी मित्रता बहुत गहरी नहीं रही |फिर , हमारे परिचय के बमुश्किल दो तीन महीने भर ही तो वह सिंगापुर  में रही |     चुनाचे  कसीदे पढ़ने के लिए बहुत  कुछ नहीं है | लेकिन कई बार छोटे समय की मित्रता भी कुछ ऐसे लम्हे दे जाती है कि आदमी फुरसत में बैठ मुस्कुरा लेता है | 

लिंडा वियतनामी मूल की लड़की थी | बिहेवियरल साइंस में विदेश से मास्टर डिग्री और फिर उसके बाद बेहतर करियर की आस उसे   चांग माई  की पहाड़ियों से सिंगापुर तक खींच लायी थी | साउथ पूर्व एशिया के मानक के हिसाब से वह लम्बे कद की लड़की थी | औसत चेहरा मोहरा , दुबली , सपाट वक्ष स्थल , रंग साफ़ पीत वर्ण | नैन नक्श मंगोल कुल के थे | गर्दन बालिश भर लम्बी थी , जिसमे हमेशा एक तार जितना महीन सिल्वर कलर पेंडट लिपटा रहता था |  कार्गो पैंट , टीशर्ट , वुडलैंड स्टाइल शूज , दाएं हाथ की इंडेक्स फिंगर में सर्प नुमा अंगूठी, विंटेज स्टाइल गोल्डन केसीओ वाच | यही उसका परिधान होता था |  

उसे फिक्शन पढ़ने का शौक न होता तो शायद हमारी मुलाक़ात ही न हुई होती | बुगिस लाइब्रेरी के रीडिंग लॉउन्ज में जब मैंने उसे पहली बार देखा तो  उसके हाथ हरुकी मुराकामी की 'नॉर्वेजियन वुड' थी | हरुकी मुराकामी के बारे में मैंने काफी सुना था लेकिन इस जापानी लेखक का कुछ भी पढ़ा नहीं था सो मैंने उससे पूछा कि क्या उधर इस लेखक की कोई और रचना भी है क्या ?

मैं फिक्शन सेक्शन के चक्कर लगाकर वापस आकर बैठा तो हमारी बातचीत चल निकली | फिर हम घंटा भर रसियन , फ्रेंच , लेटिन अमेरिकन से लेकर जापान तक के फिक्शन , नॉन फिक्शन पर गपियाते रहे | लाइब्रेरी गप्पे हांकने के लिए माकूल जगह नहीं  थी सो उसके बाद हम जब भी मिले , पास के स्टारबक्स में बैठने लगे | 


उस रविवार लिंडा ने भारतीय परिधान पहना था | 

पीले कलर का लखनवी करी वर्क का सूट , वाइट कलर पेंट , लाइट ग्रे हाई हील शूज | शायद हफ्ते भर में वापस वियतनाम लौट रही थी सो अलविदा को थोड़ा खुशनुमा बनाने का विचार उसके जेहन में रहा हो |  

और क्या ही लग रही थी | भारतीय परिधान इन चीनी मंगोल कुल की लड़कियों पर खूब फवते हैं | सुतवा शरीर और साफ़ गोरा रंग इन्हे विरासत में मिला होता है |ग़ज़ब का कॉकटेल बन पड़ता है !

उसने पूछा कि वह कैसी लग रही है तो मैंने अपने सीने पर हाथ रख दिया और देर तक आँखे झपकाता रहा | ट्रैन में चढ़ते हुए हम खिलखिला रहे थे | 


मैं एक अदृश्य आदमी  रहा हूँ | मिस्टर इंडिया वाला अदृश्य नहीं , बल्कि हील डोल, रूप रंग , नैन नक्श , चाल ढाल , इन सब के लिहाज से इस कदर मामूली , कि अमूमन गली कूचों , बस ट्रैन के सफर में आमजनो के विसुअल फील्ड में मेरी हाज़री दर्ज नहीं होती | 

लेकिन उस रविवार को मेट्रो ट्रैन में लोगो ने मुझे देखा | मैं और लिंडा बंद दिशा वाले दरवाजे से सटे खड़े थे | सामने की सीट पर बुजुर्ग चीनी मूल की महिला ने मुझे देर तक नापा | फिर देर तक लिंडा को देखती रही | 

त्रिस्कार , हीन, डिस्गस्ट  | कुछ इस तरह के भाव उसके चेहरे पर थे |  जैसे कोई चोर कुछ चुरा लिए जाता हो और मालिक की दूर से नज़र पड़ गयी हो | मेरे इस तरह के एक दो अनुभव रहे है , खासकर पुरानी  पीढ़ी के लोगो के साथ | मैं गौर नहीं करता | 

लेकिन भारतीय मूल के पुरुषों की अचानक से मुझ में बढ़ी दिलचस्पी काबिले गौर थी |  वो यूँ कर , कि  भारतीय पुरुष एक दूसरे  देखते ही कहाँ  है | पार्क के फुटपाथ पर आमने सामने आ जाएँ तो एक आसमान को ताकेगा , दूसरा आसपास के सारे पेड़ पौधों की गिनती कर डालेगा |  उनकी  थोड़ा बहुत 'गुड मॉर्निंग' या 'हाउ डू यू डू ' दूसरी नस्ल के पुरुषो को देख कर ही निकलती है |   उस दिन उनमे से कई अपनी पत्नियों से नज़रे चुरा हमें देख रहे थे | 

लिंडा पर शायद नयी पोशाक का असर था या फिर अचानक से ट्रैन के डिब्बे के यात्रिओं की बढ़ी दिलचस्पी को उसने भी भाँप लिया था |  वह  बड़ी ही नज़ाकत से पूरे सफर मेरे साथ खड़ी रही | कुछ यूँ क़े , के जैसे हमने कसमें ली हैं , हमारे अकेले में एक दूसरे से वायदे हुए है |  

लेकिन भारतीय स्त्रियों का व्यवहार भौंचक्का करने वाला था | निगाह भर आदमी को देखने की उनकी तरबियत नहीं रही होती है | लेकिन मैंने पाया कि उनमे से कई मुझे हर दो मिनट में देख रही थीं | कुछ जो स्पोर्ट हैंडल पकडे खड़ी थी , वे बड़ी बेचैनी से पैर बदल रही थीं  | अजी सिर से पैर तक मुझे दर्जनों बार नापा गया | मैं क्या बोल रहा था  ये सुनने को कान लगाए गए | कई मुस्कुराहटें यूँ ही सस्ते में मुझे नजर कर दी गयी | 


मैं तो जैसे खुमार में था | रविवार की उस सुबह मुझे अपनी महशूरियत का अहसास हो चला था | माहौल को थोड़ा और दिलचस्प बनाने के लिए मैं बार बार लिंडा के कान के पास जाता और कोई बेफिज़ूल सी बात कहता | 

जैसे "देखो न , मौसम कितना अच्छा है | "

"तुम्हे क्या लगता है लिंडा , क्या आज बारिश होगी ?"

"तुमने अभी तक अन्तन चेखोव को क्यों नहीं पढ़ा है ?" वैगरह वैगरह | 


मैं सोच रहा था कि जब में अपनी जवानी के गुलाबी सालों में था , तब क्यों कर मेरी नस्ल की स्त्रिओं की मुझ में दिलचस्पी नहीं रही | और अब मैं ढलान पर हूँ | , क्या मैं समय के बेहतर हुआ हूँ| किसी पुरानी शराब की तरह | ऐसे विचार मेरे मानस में कौंध रहे थे 


और फिर मुझे इल्म हुआ | और कुछ इस फुर्ती से हुआ कि ऐसे लगा के  जैसे  बिजली आन गिरी हो ।

'ओह माय गॉड !' , 'ओह माय गॉड !' | मैं किस कदर  उन महिलाओ के पतियों जैसा दिख रहा था | कमर छोड़ता पेट , कपटियों से ऊपर की ओर उड़ती जाती हेयर लाइन  |  माथे पर स्टैटिक ऐज लाइन्स | मसल लॉस से थुलथुल होती जाती भुजाएं | किश्तों  के बोझ से ढले कंधे |  निश्तेज चेहरा | टेलर मेड , क्रीच वाली पैंट , सिल्वर बैंड विंटेज वाच , हर पौशाक के साथ पहने जाने वाले ग्रे लेदर शूज , गोल्डन फ्रेम चश्मा |   

उफ्फ्फ्फ़ , मेरा  लिंडा के साथ होना एक प्रदर्शन था , एक एक्सहिबिशन |एक अधेड़ मिडिल क्लास भारतीय मर्द के लिए सम्भावनाओ का प्रदर्शन ! 

बस और बस , शायद यही बात उन्हें डरा रही थी | मुझमे और उनके पतियों में सिर्फ और सिर्फ बेहयाई का ही फर्क तो था | भारतीय पुरुष जिम्मेदारी और हया का चोला छोड़ भागे तो क्या हो ? उनकी मुझ में जिज्ञासा शायद ये खौफ ही थी | मोरल कोड टूट जाने का डर  | जनाब , स्त्री का चेतन संभावनाओं के अंतिम सिरे तक सोचता है | 

और उनके इस खौफ का मुझे जैसे ही एहसास हुआ , मेरे होठ किसी धनुष की प्रत्यंचा की तरह चौड़ी मुस्कान में खिल उठे | यह  एक सैडिस्टिक सुख था | 

लिंडा से वो आखिरी मुलाकात थी | हमने एक दूसरे के संपर्क में रहने , अच्छी किताबो के सुझाव देते रहने के वादे किये | उसने मुझे कभी चांग माई आने का अनुरोध किया | 

 लाइब्रेरी से वापस लौट उस दिन मैं देर तक मुस्कुराता रहा | रात को सोने तक मुस्कुरता ही रहा | 


                                                                                                      -सचिन कुमार गुर्जर 

                                                                                                         सिंगापुर द्वीप  

                                                                                                        ५ अक्टूबर २०२४ 

                                                                                                                                                                                    


अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...