शुक्रवार, 14 अक्टूबर 2022

मलाल


 

अभी पिछले कुछ दिन पहले मैं एक 'मलाल' से टकरा गया | लंच के बाद कॉर्पोरेट दफ्तरों की कतार के गलियारे में चहलकदमी करते हुए वो टकरा गयी | 

"अरे तुम , तुम यहाँ कैसे ?" उसने कहा | 

"मैं तो इधर ही जॉब करता हूँ , तुम यहाँ कैसे ? " सवाल के जबाब में सवाल ही था मेरे पास भी | 

कॉर्पोरट की छोटी दुनिया | पुराने लोग टकराते रहते है  | शायद पास के किसी ऑफिस में क्लाइंट मीटिंग के लिए आयी थी | 

"कितना टाइम हो गया है ना ? याद है तुम्हे ? " उसके शब्दों में गर्माहट कुछ ऐसे थी जैसे हम किसी जमाने में बहुत ही घनिष्ठ रहें हो |  

"शायद दस साल | " एक मोटा अनुमान लगा कर मैंने बोला |  

"दस नहीं बारह साल | "  

हमने पुराने ऑफिस के दो चार साथियों को याद किया | कौन किधर जॉब करता है ये बताया, सुनाया | 

"चलो चाय के लिए मिलते है | तुम हो न अभी इधर?  " मैंने पूछा | 

उसके मिल जाने से दिमाग की तहो में दफ़न ना जाने कितनी बातें बुलबुलों की तरह फूट फूट कर ऊपर आने लगीं | 

यही कोई चौदह साल पहले जब मैं कामगारों के जहाज में सवार हो सिंगापुर आया था , तभी पहल पहल उसका दर्शन हुआ था | और दर्शन ऐसा दर्शनीय कि आदमी भूल नहीं सकता !  शादीशुदा थी | शायद कोई बच्चा नहीं था तब तक | कद औसत भारतीय स्त्री कद से थोड़ा ऊँचा | शरीर भरा हुआ था | डॉयटिंग वाइटिंग के चोचलों से परे थी | रंग दूधिया उजला | हँसती या थोड़ा लजाती तो एक दम से खून के दौर से गाल लाल हो जाते | अनार दाने की तरह बारीक दांतो की कतारें थोड़ी ही खुलती थीं | नाक खड़ी , सुतवा | पर नासिका छिद्र इतने छोटे थे कि देख के अचम्भा होता कि इतने महीन छिद्रो से जीने भर लायक हवा भी कैसे अंदर जाती होगी | पपीहे की तरह छोटी और मीठी आवाज़ वाली , हर बात बेबात पर मोटे बटन सी गोल आँखे घुमा घुमा कर हॅसने वाली| अपने क्यूबिकल और  आस पास के चार पांच क्यूबिकल की ख़ुशनुमाई की अहम् किरदार थी |  

मलाल? मैंने कहा ना वो शादीशुदा थी ! खूबसूरत पर शादीशुदा स्त्री हर दूसरे पुरुष के मन में मलाल ही होती है | मीठा पीठ दर्द होता है ना | दर्द जिसका दिन की आपाधापी  में ना ध्यान होता है ना इलाज | पर फुर्सत में आदमी जब चित्त हो लेटता है , तब वो एहसास देता है |  बर्दाश्त के बाहर नहीं जायेगा , पर आपको चैन से सोने नहीं देगा  | बस वैसा ही कुछ होता है ये मलाल | 

खैर, हम चाय पर मिले | उसने नेवी ब्लू कलर का मॉक नैक ,  ट्रम्पेट स्लीव्स फ्रॉक पहना था | नी लेंथ | ब्राउन कलर , फ्लैट लोफ़र्स डाले हुए थे | और हाथ में एप्पल वाच , जिसका रिस्ट बैंड ऑफ वाइट कलर का था | 

"सुनाओ कुछ।, कैसी चल रही है लाइफ ? " चाय की एक चुस्की भर ले उसने कप किनारे खिसका दिया | 

"बस जी | चलना रुकना अपने हाथ में कहाँ  | बस जिंदगी की नदी बही जा रही है | उसमे हम भी बह रहें हैं | "

"तुम बाबाओ जैसे बातें करने लगे  हो | " वो खिलखिला पड़ी | उसके अनारदाने जैसे दाँतो को पंक्तियाँ अभी वैसी ही थी |  

"तुम बूढ़े हो रहे हो , मोटे भी हो गए हो | "उसने कहा | 

"हाँ जी , देखो ना , मेरे बाल इतना ऊपर तक खिसक गए हैं |" मैंने हामी भरी | 

 वो गुस्सा हो गयी | झूठ मूठ का गुस्सा | नाक चढ़ा कर बोली " तो क्या , इस उम्र में भी कोई अफेयर करना चाहते हो ?हुह ?  हो गया ना बस | "

वो जो महसूस कर रही थी , कह रही थी | कुछ ऐसे जैसे हम बारह साल बाद नहीं बल्कि हफ्ते दो हफ्ते बाद ही मिल रहें हों | 

और मैं ? मैं अपने अंदर एक  बबंडर को दबाये बैठा था | कितना बदल गयी थी वो | उसके बदलाव देख मेरा कलेजा  बैठ गया था | उसके गाल अब हँसते हुए लाल नहीं होते | चेहरा बड़ा हो गया था | रंग फीका था | सिन्दूर लगाने की सीध में फटने वाली बालों की मांग चौड़ी हो गयी थी | वो निश्चित रूप से घर का कोई भारी काम नहीं करती होगी | नौकरानी होगी घर पर | पर उसके हाथ कितने बड़े लगने लगे थे  | आँखे जो बात बात पर नाचतीं थी वो अब इस भाव से देखतीं थी जैसे कहतीं हों सब कुछ देख तो लिया , जी तो लिया ,अब क्या बचा है  | वो अब कितनी सहज हो गयी थी , कोई भी बात उसे अचंभित नहीं करती थी | उसके चेहरे पर दुःख और सुख के भाव ठहर गए थे |शरीर वैसे ही भारी जैसा कि किसी भी आम अधेड़ ग्रहणी का होता है |   

वो जब कोई दुनियादारी की बात कह रही थी तब मैं सोच रहा था कि क्या ये वही थी जिसे सहज हो मैंने एक दिन बोला था " सुनो , तुम्हे शादी की इतनी जल्दी भी क्या थी " और जबाब मे उसने बिना कुछ  बोले मुँह तिरछा किया था बस , कुछ ऐसे जैसे कहती हो " न भी की होती तो क्या एक तुम ही थे !"

मल्लका की खाड़ी से उठा घना बादल अब टपकने लगा था |  टी हाउस की  शीशे की दीवारों के ऊपरी सिरे पर बारिश की  बूंदे आ चिपकती | धीरे धीरे नीचे की ओर खिसकती | अध्-बीच तक आते आते बूंदे भारी होने लगतीं और फिर बढे  भार के चलते  बड़ी तेज गति से नीचे जमीन की ओर को भागती |  वैसे ही जैसे जिंदगी भागती है | 

हमने कोई चालीस पैतालीस मिनट बात की | शायद इससे ज्यादा बात करने के लिए हमारे पास कुछ था भी नहीं | 

उसने बताया कि उसका बड़ा बेटा  सज्जन है | संवेदनशील , हर बात को मानने वाला | और छोटा उसका उलट | वो अब कोई आराम की नौकरी देखना चाहती है | ज्यादा ग्रोथ हो न हो सुकून हो बस | उसके पति कहते  है कि चाहे तो वो नौकरी छोड़ दे , पर उसे लगता है कि घर में बंध कर ही रह न जाए | 

मैंने उसे बताया कि किस तरह से बेटी का बाप बन जाने से आदमी की भावनाओं  के , सोच के नए आयाम खुल जाते है | किस तरह बच्चों के  आ जाने से बाकी सब बातें  गौढ़ हो जाती हैं | सब कुछ उनका और उन्ही के लिए हो जाता है |  

फिर हमने एंग्जायटी , नींद कम आने , कोलेस्ट्रॉल , थाइरोइड  , हैल्थी लाइफ स्टाइल से जुडी बातें की |  

शाम को ऑफिस से ट्रैन से वापस आते हुए मेरा मूड उखड़ा हुआ था | बारह साल , बारह साल | बारह साल में इतना कुछ गुजर जाता है , इल्म ही नहीं था | सोचता  रहा कि कुदरत इतनी बेरहम क्यों है ? सब कुछ पहले बनाना और बिगाड़ना क्यों होता है ?शीत में खिले गेंदे के फूल , बसंत की नयी पत्तियां , और दिलों में हूँक देने वाले खूबसूरत चेहरे | कुछ तो यूँ ही छोड़ देती | 

और उस रात मैंने हाथ मुँह धोने के बाद आईना नहीं देखा |  

रविवार, 2 अक्टूबर 2022

निस्वार्थ भाव



विचार , महज एक विचार आदमी को बौरा सकता है | फिर चाहे आदमी स्वर्ग में ही क्यों न बैठा हो | आप ही बताएं , पुरुष की इच्छाएँ कितनी सी होती हैं ? कुछ अदद सामान ही तो लगता है | मेज पर यार-चौकड़ी  की गिनती भर  के कांच के गिलास , आइस क्यूब्स , सस्ती महंगी कैसी भी व्हिस्की , भुनी हुई  मुर्गी , शाम की ठंडी हवा ,हल्का म्यूजिक और ऊँगली के इशारे भर पर लपक कर गिलास भर देने को तैयार  युवतियाँ |  बस इतना भर ही न | 

बाबजूद इस सबके , छब्बीस सत्ताईस साल का वो युवक कुलबुलाए जा रहा था | घूट दो घूट  लेता फिर किसी बोडम की तरह मन ही मन बुदबुदाता, इधर उधर घूरता  | उसका प्रौढ़ साथी उसे समझाता | 

'क्लार्क की' से गुजरती सिंगापुर नदी का वेग बेहद धीमा था उस दिन | ऐसा जैसे मानो नदी का अपना प्राण हो जो कहता हो : "आराम से | इत्मीनान से | हे सोमवार से शुक्रवार बैल की तरह जुतने वाले इंसान  , शुक्रवार की इस शाम को आराम से | खुल कर जी  और खींच इन लम्हों को , जितना खींच सकता  हो | "   

और लम्हे | क्या ही खूबसूरत | मलक्का की खाड़ी से उठने वाली धीमी हवा नदी के ऊपर यूरोपियन वास्तुकला में बने कैंटीलीवर के पुलों को बिना आवाज एक के बाद एक कर पार करती , फ़ुलर्टन होटल के आगे से वलय लेते हुए रिवरसाइड में बने दर्जनों मयखानो में हाजरी लगा रही थी | 'लिटिल सैगोन' , 'विंग्स बार' , 'टोमो इसाकाया' , 'हूटर्स' , 'हाई लैंडर' , 'लेवल अप' ऐसे दर्जनो, कुछ नामचीन  तो कुछ नए बार्स की कतार दूर तक जगमगा रही थी | नदी के उस पार शॉपिंग काम्प्लेक्स की बत्तियों का प्रतिबिम्ब नदी की सतह पर कुछ ऐसे बनता था जैसे किसी ने एक साथ सैकड़ो दिये तैरते छोड़ दिए हों | एक्का दुक्का टूरिस्ट बोट जब पानी को चीरती तो लहरों के साथ वो दिए भी किनारे की ओर भागते | 'यू ओ बी'  बैंक के ऊँचे टावर के कोने पर चाँद कुछ ऐसे निकला था जैसे मानो कोई बिजली का बड़ा गोल हाण्डा  बिल्डिंग की मुंडेर से टाँगा गया हो | 

नदी के उस पार कोई लोकल बैंड अंग्रेजी गाने गा रहा था | नदी के किनारों को बांधती सीढ़ियों पर कॉलेज के कम उम्र लड़के लड़कियाँ , एक दूसरे के हाथ थामे कसमें खा रहे थे  |कसमें ,जो तोड़ी जानी थी |  और इस पार | थाई , वियतनामी , चीनी , फिलिपीनो | जितनी विविधता लिए व्यंजन उतनी ही वैरायटी लिए बार गर्ल्स | बेहद कम उम्र | उनमे से अधिकांश ने बामुश्किल वर्क परमिट की वैध उम्र को छुआ होगा |  कद काठी, नैन नक्श , चाल ढाल, बोल चाल , इस सब मे  ऐसी जैसे उन्हें 'बार' नहीं  किसी इंटरनॅशनल एयरलाइन्स में एयरहोस्टेस होने को चुना गया हो | 

'ड्रमस्टिक्स' , 'चिकन विंग्स' , 'सीक कबाब' , 'बारबेकु चिकन' , 'टाइगर प्रॉन' , 'पड थाई' , 'टॉम यम सूप' , 'स्मोक्ड सैमन'  ये कुछ चंद डिशेस है | ऐसी न जाने कितनी एक्सोटिक रेसेपी की तस्तरियाँ लिए युवतियाँ दौड़ रहीं थी | व्हिस्की , वोदका , मोजिटो , शिर्ले , बियर , वाइन इन सबके ग्लास खाली होते और फिर से भर दिए जाते | 

अजी , शाम कुछ ऐसी कि आदमी शराब ना भी पिए तो माहौल ही चढ़ जाए ! 

 और इस सबके बीच वो छब्बीस सत्ताईस का बाँका मारे कुढ़ के जला भुना जा रहा था | कुढ़ ? हाँ , बात सिर्फ इतनी सी कि जिन हिरणी  जैसी चाल  के साथ उँगलियों पर तस्तरियाँ उठाये युवतियों को उसे बार बार 'एक्सक्यूज़ मी ' कहकर बुलाना होता था वे ही युवतियां रेलिंग के सहारे लगी मेज पर जमा चार पांच गोरों  पर इस कदर न्योछावर थीं जैसे किसी अमीर रियासतों के  वारिस  पधारे हों  | 

वे उनके हर नए पुराने , अच्छे घटिया हर जोक पर खिल उठती|  बोतल छूट न जाए इस लिए मेज पर रख देतीं |  उनके छोटे छोटे वक्षस्थल देर तक थरथराते  रहते   | गोरों की  फ़रमाहिशों को फेहरिस्त में सबसे ऊपर रखतीं |  दूसरे कस्टमर्स को निपटाती और  फुर्सत होते ही गोरों  की  मेज पर फूलदान सी झूल जातीं |  


प्रौढ़ साथी ने समझाया "ये व्हाइट प्रिविलेज है भाई | इनको हर जगह मिलता है | एक परसेप्शन है जो पीढ़ी दर पीढ़ी चला आ रहा है | परसेप्शन ये कि गोरे ज्यादा खर्च करते है , रईस होते हैं | अच्छी टिप देतें है | पैदाइशी जेंटलमैन होते है | इज़्ज़त से पेश आते है | दिल से सॉरी , थैंक्स बोलते  हैं |बड़े ही सेंसिटिव होते है | अपने लोगो की इमेज कुछ इतर है |"

 "ये एक फसल है जो इनके पुरखे बो गए है जिसे ये आज काट रहे है | और फिर 'बार' में ही क्या | अपने वर्क एनवायरनमेंट में भी ये दिखता है की नहीं ?"

सोया सॉस में तर जूसी चिकन लेग को व्हिस्की से गले में उतारते हुए नवयुवक कुछ नरम तो हुआ, पर उसके अहम् पर लगे दाग का धुआँ देर तक उठता रहा  " ऐसा कुछ नहीं है , आज की दुनिया में कोई किसी से कम नहीं है | "

"हाँ , सही हैं | लेकिन जो पेसेप्शन है सो है | उसके बनने में और बिगड़ने में पीढ़ियां लगती है मेरे भाई , पीढ़ियाँ |  " प्रौढ़ ने कर्त्तव्य भाव से समझाया  |  

घडी का काँटा ग्यारह की तरफ जा रहा था | बिल चुकता करने के बाद बार की कुर्सियों से उठते हुए प्रौढ़ ने बार गर्ल की हथेली पर  दस दस डॉलर के दो नोट रख दिए " ये तुम्हारी मेहनत और सेवा भाव के लिए | शुक्रिया , दिल से शुक्रिया "| युवती ने थाई मुद्रा में झुककर अभिवादन किया |  एक मुस्कान से उसका चेहरा खिल उठा | मुस्कान जो उसकी नाक के नीचे से शुरू हो कान के सिरों तक जाती थी | ऐसी गहरी और आत्मा की गहराईयों से उठने वाली मुस्कान सिर्फ और सिर्फ पैसा ही पैदा कर सकता है !

ट्रैन स्टैशन के लिए कैंटीलीवर  पुल को पार करते हुए नवयुवक ने टिप को लेकर कहा " बड़े भाई इसकी जरूरत नहीं थी | कम से कम आज तो नहीं | " 

और  प्रौढ़ ने मुस्कुराते हुए इतना भर कहा " ये अपने लिए नहीं था छोटे | ये अपनी नस्ल के उन लोगों  के लिए था जो हमारे बाद इस बार में आएंगे !" 


                            --  सचिन कुमार गुर्जर      

अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...