अभी पिछले दिनों , लंच के बाद कॉर्पोरेट दफ्तरों के गलिहारे में चहलकदमी करते हुए , मैं अपने जीवन के एक 'मलाल' से टकरा गया |
"अरे तुम , तुम यहाँ कैसे ?" उसने कहा |
"मैं तो इधर ही जॉब करता हूँ , तुम यहाँ कैसे ? " सवाल के बदले सवाल ही था मेरे पास भी |
कॉर्पोरट की दुनिया छोटी है | पुराने लोग टकराते रहते है | वह पास के किसी ऑफिस में क्लाइंट मीटिंग के लिए आयी थी |
"कितना टाइम हो गया है ना ? याद है तुम्हे ? " उसके शब्दों में गर्माहट कुछ ऐसे थी जैसे हम किसी जमाने में बहुत ही घनिष्ठ रहें हो |
"शायद दस साल | " एक मोटा अनुमान लगा कर मैंने बोला |
"दस नहीं बारह साल | " उसने मुझे ठीक करते हुए कहा |
हमने पुराने ऑफिस के दो चार साथियों को याद किया | कौन किधर जॉब करता है ,ये सुना, सुनाया |
"चलो शाम की चाय साथ में पीते है | तुम हो न अभी इधर? " मैंने पूछा |
उसके यूँ अचानक से मिल जाने से मेरे दिमाग की तह में दफ़न ना जाने कितनी बातें बुलबुलों की तरह फूट फूट कर ऊपर आने लगीं |
यही कोई चौदह साल पहले जब मैं कामगारों के जहाज में सवार हो सिंगापुर आया था , तभी पहले पहल उसका दर्शन हुआ था | और दर्शन ऐसा दर्शनीय था कि आदमी भूल नहीं सकता ! शादीशुदा थी | शायद कोई बच्चा नहीं था तब तक | कद औसत भारतीय स्त्री कद से थोड़ा ऊँचा | शरीर भरा हुआ | रंग दूधिया उजला | हँसती या थोड़ा लजाती थी तो एक दम से खून के दौर से गाल लाल हो जाते थे | नाक खड़ी , सुतवा थी | नासिका छिद्र इतने छोटे थे कि देख के अचम्भा होता कि इतने महीन छिद्रो से जीने भर लायक हवा भी कैसे अंदर जाती होगी !पपीहे की तरह छोटी और मीठी आवाज़ थी उसकी | हर बात बेबात पर बटन सी गोल मोटी मोटी आँखें घुमा कर हँसती थी | ऑफिस के माहौल को ख़ुशनुमा रखने में अहम्की किरदार था उसका |
पर 'मलाल' कैसे ? मैंने कहा ना ,वह शादीशुदा थी ! खूबसूरत पर शादीशुदा स्त्री हर दूसरे पुरुष के मन में मलाल ही होती है | वो एक मीठा पीठ दर्द होता है ना , दर्द जिस पर दिन की आपाधापी में ध्यान नहीं जाता , पर फुर्सत में आदमी जब चित्त हो लेटता है , तब वह एहसास देता है | दर्द ,जो बर्दाश्त के बाहर नहीं जाता , पर चैन से सोने भी नहीं देता | एक एहसास कि हम क्या कम थे जो किस्मत ने हमें किसी ऐसे खूबसूरत और जिंदादिल साथी से महरूम रखा | यह मानवीय स्वभाव का हिस्सा है | हर वह वस्तु या शख्स, जिसके हम ख़्वाहिशमंद भी थे और पाने की कूबत भी रखते थे ,पर सही समय सही जगह पर उपस्थित ना होने के चलते, पा न सके , मलाल ही देकर जाती है |
खैर, हम चाय पर मिले | उसने नेवी ब्लू कलर का ट्रम्पेट स्लीव्स का, घुटनों पर ख़त्म होने वाला फ्रॉक पहना था| | पैरों ब्राउन कलर ,के फ्लैट लोफ़र्स पहने हुई थी | हाथ में एप्पल वाच , जिसका रिस्ट बैंड ऑफ वाइट कलर का था |
"सुनाओ कुछ।, कैसी चल रही है लाइफ ? " चाय की एक चुस्की भर ले उसने कप किनारे खिसका दिया |
"बस जी | चलना रुकना अपने हाथ में कहाँ | बस जिंदगी की नदी बही जा रही है | उसमे हम भी बह रहें हैं | "
"तुम बाबाओं जैसी बातें कब से करने लगे | " वह खिलखिला पड़ी | उसके अनारदाने जैसे दाँतो को पंक्तियाँ अभी वैसी ही थी |
"तुम बूढ़े हो रहे हो , मोटे भी हो गए हो | "उसने थोड़ा फिक्रमंद हो कहा |
"हाँ जी , देखो ना , मेरी हेयर लाइन कितने ऊपर तक खिसक गयी है| " मैंने उसकी फ़िक्र में जोड़ा |
अब वह गुस्सा हो गयी | झूठ मूठ का गुस्सा | कुछ ऐसे ही जैसे कोई प्रेयसी अपने प्रेमी से करती है नाक चढ़ा कर बोली " तो क्या , इस उम्र में भी कोई अफेयर करना चाहते हो ?हुह ? हो गया ना बस | "
वह जो महसूस कर रही थी , कहती रही थी | कुछ इस सहजता से , जैसे हम बारह साल बाद नहीं बल्कि हफ्ते दो हफ्ते बाद ही मिल रहें हों |
और मैं ? मैं अपने अंदर एक बबंडर को दबाये बैठा था | समय के साथ उसमे आये बदलाव देख मेरा कलेजा बैठ गया था | हँसते हुए अब उसके गाल लाल नहीं होते थे | चेहरा बड़ा हो गया था | सिन्दूर लगाने की सीध में फटने वाली बालों की फाँट चौड़ी हो गयी थी | वह निश्चित रूप से घर का कोई भारी काम नहीं करती होगी | नौकरानी होगी घर पर | बाबजूद इसके उसके हाथ उतने कोमल नहीं थे | आंखें जो कभी बात बात पर नाचतीं थीं , आज वे इस भाव से देखतीं थी, मानों कहतीं हों कि सब कुछ देख तो लिया , जो जीना था ,जी तो लिया ,अब क्या बचा है | उसके चेहरे पर दुःख सुख के भाव धूप छाँव से ठहर गए थे |शरीर वैसे ही भारी हो चला था जैसा किसी भी अधेड़ गृहणी का होता है |
"तुम्हे , क्या लगता है , तुममें भी कुछ बदलाव आएं है ? " मैंने चाय का कप एक तरह सरकाते हुए उससे पूछा |
"बिलकुल आए है , सभी मे तो आते है | मुझे लगता है मैं अब पहले से ज्यादा सुलझ गयी हूँ | बिलाबजह की बातों में समय खर्च नहीं करती | " उसने बड़ी फुर्ती से जबाब दिया |
"खुश हो ? " मैंने जोड़ा |
"पहले से कही ज्यादा | " उसने ये कहते हुए अपनी दोनों आँखें देर तक झपकाएं रखीं |
मुझे लगा कि बदलाव के जिन बिंदुओं को मैं केंद्र में रखकर सोच रहा था , उन्हें वह कहीं हांसिये पर रख रही थी |
मल्लका की खाड़ी से उठा घना बादल अब सिंगापुर के ऊपर टपकने लगा था | टी हाउस की शीशे की दीवारों के ऊपरी सिरे पर बारिश की बूंदे आ चिपकती | फिर धीरे धीरे नीचे की ओर खिसकती जातीं | बीच दीवार तक आते आते बूंदे भारी होने लगतीं और फिर बढे भार के चलते बड़ी तेज गति से नीचे जमीन की ओर लुढ़क जातीं | बस कुछ ऐसे ही ज़िंदगियाँ भागती हैं |
चाय के बाद जब वह अपने फ़ोन पर मुझे अपने परिवार के फोटो दिखा रही थी तब मैं सोच रहा था कि क्या यह वही थी जिसे सहज हो मैंने एक दिन बोला था " सुनो , तुम्हे शादी की इतनी जल्दी भी क्या थी ? "
और जबाब में उसने बिना कुछ बोले मुँह तिरछा किया था बस | कुछ ऐसे जैसे कहती हो " न भी की होती तो क्या एक तुम ही थे !"
हमने कोई चालीस पैतालीस मिनट बात की | शायद इससे ज्यादा बात करने के लिए हमारे पास कुछ था भी नहीं |
उसने बताया कि उसका बड़ा बेटा सज्जन है | संवेदनशील , हर बात को मानने वाला | और छोटा उसका उलट | वह अब कोई आराम की नौकरी देखना चाहती है | ज्यादा ग्रोथ हो न हो सुकून हो बस | उसके पति कहते हैं कि चाहे तो वह नौकरी छोड़ दे , पर उसे लगता है कि इससे वह घर में बंध कर ही रह न जाए |
मैंने उसे बताया कि किस तरह से बेटी का बाप बन जाने से आदमी की भावनाओं के नए आयाम खुल जाते है | किस तरह बच्चों के जीवन में आ जाने से बाकी सब बातें गौढ़ हो जाती हैं | सब कुछ उनका और उन्ही के लिए हो जाता है |
उसके बाद हमने एंग्जायटी , नींद कम आने , कोलेस्ट्रॉल , थाइरायड , हैल्थी लाइफ स्टाइल से जुडी बातें की |
शाम को ट्रैन से ऑफिस से वापस लौटते हुए मेरा मूड उखड़ा हुआ था| बारह साल में इतना कुछ गुजर जाता है , इल्म ही नहीं था | सोचता रहा कि कुदरत इतनी बेरहम क्यों है ? उसे सब कुछ पहले बनाना और फिर बिगाड़ना देना क्यों होता है ?शीत में खिले गेंदे के फूल , बसंत की नयी पत्तियां , दिलों में हूँक देने वाले खूबसूरत चेहरे ,कुछ तो यूँ ही छोड़ देती |
और उस रात मैंने हाथ मुँह धोने के बाद आईना नहीं देखा | शायद इसलिए कि उस मनोदशा के साथ खुद तो देख भर लेता तो दशक भर के मेरे खुद के बदलावों का मलबा एक साथ मेरे मुँह पर आ गिरता जो मेरी बर्दाश्त से बाहर होता |