"ओ देसा , भैंसिया लात मार गयी क्या आज | " लकड़ी के पुराने तख्तों से बने मटमैले दरवाजे की झीरियों से झाँकता दूधिया चिल्ला रहा था | देसा गडरिया बगल में खुरपी दबाये अपने खेत पर निकल गया था | बांकले की फली की क्यारियों में गाजर घास उग आयी थी | घर के आँगन में लगे कड़वे बकैन के पेड़ तले टोकरी फेंक उसकी घरवाली दरवाजे पर आई |
"साल भर का तिभार (त्यौहार ) हैगा | मावा गुँजिया करै है हम | बालक हैं , आये गये मिलने वाले हैं | तीन दिना की बेच बंद रहे हमारी | "
"ओ भलमानस , ऐसा क्यू कहो हो | अभी तो डिमांड जियादा है दूध की | आधा तो देओ कम स कम | "
आँगन के किनारे लगे करोंदे की झाड़ियों पर बकरियाँ आ गयीं थी | आठ साल का राजू , शहतूत की कमची से उन्हें छपरिया की ओर धकेल रहा था | साथ ही सोचता जा रहा था कि बात सेर या सवा सेर अनाज से बन पाती तो माँ की नज़र के नीचे से खींच लेता | पर लाला की दुकान के बाहर खटिया पर गुलाल की थैलियों के पीछे सजी गुलाबी, लाल , पीली पिचकारियाँ इतनी महंगी थी कि कम से कम आधा धड़ी (अढ़ाई किलो ) गेहूँ लगता | फिर माँ के हाथ में हमेशा विधमान लोहे की फुकनी इतनी भारी थी कि उसकी चोट खाल, माँस को भेदती हुई रीढ़ की हड्डी तक जाती थी | खींझ में उसने बकरियों को कई कमचियाँ जड़ दीं थीं |
"ना ,तम से बताई ना क्या इसके बाबा नें ? " राजू की ओर इशारा कर उसकी माँ ने कहा | हताश दूधिया लौट गया |
सुबह की आपाधापी से निपट राजू की माँ ने आँगन में एक उठाऊ चूल्हा जमा दिया और राजू को घर की छत पर चढ़ा दिया | छत पर दुनिया जहान का लकड़ काठ जमा था | सरसों की तूर के गठ्ठर , बकैनिया के सूखे कुंदे , मोटे बाँस , यूकेलिप्टिस की टहनियाँ , टूटी खाट के पाए और पिछली साल की अरहर के सूखे झाड़ | चूँकि कढ़ाई लम्बे समय तक आँच पर रहनी थी सो माँ ने राजू से कुछ ठोस और मोटी लकड़ी का ईंधन आँगन में फेंकने को कहा |
हवाईजहाज के अल्मुनियम की चादर की कढ़ाई थी जिसे राजू की माँ ने अपनी शादी में मिली काँसे की परात और पीतल के लोटे के बदले खरीदा था | कढ़ाई में गोल गोल घूम दूध जब सूखने लगा और माँ कढ़ाई के किनारे पलटनी से खुरचने लगी तो राजू ने अपनी बटन जैसी गोल और छोटी आँखे माँ के चेहरे पर जमा कहा "माँ री , सुने है ? लाला की दुकान पे बड़े जोर की पिचकारी हैंगी इस बार | सहर जाने की कोई जरूरत ना है | सब सामान अपने गाम में ही मिलन लगा अब | "
माँ का चेहरा ऐसे बिगड़ा जैसे चूल्हे का सारा कड़बा धुआँ उसकी आँखों में जा घुसा हो | "रकम लुटे हैगा जु बनिया | अभी तीन दिना है होरी के | सबर कर | पीर की बजरिया से मंगा लीजो "| माँ ने आश्वासन दिया और राजू ने सहर्ष मान भी लिया |
बड़े किसानों और बनियों के लड़कों के हाथों में पिचकारियाँ कब की आ चुकी थी और वे सब अपने अपने हथियारों की फेंक नाप रहे थे | किसी के पास मछली के ढाल की गुलाबी पिचकारी थी जो पंप दबाने पर बड़ी ही महीन और लम्बी धार फेंकती थी | किसी के पास तमंचा था जिसका पंप खचर खचर की आवाज़ निकालता था | कुछ के पास स्टील की बड़ी पिचकारियाँ थीं, जिनमे आधा लीटर पानी आता था | उन बच्चों के बाप जब गलिहारों से गुजरते तो बच्चों को चेताते जाते "बालको ,पहले ही खराब करके मत बैठ जइयो | कदी (कभी ) फिर होरी के दिना टुकर टुकर बैठे देखो | " इन सबसे अलग राजू अपने घर की चबूतरी से सब देखता | दूसरी की होड़ नहीं किया करते , ये बात उसे हर दूसरे दिन सिखाई जाती थी |उसे पीर की बजरिया का इंतज़ार था |
ढाई डग भर चौड़ी काले डामर की सड़क थी जिससे कोई फेरी वाला चला आ रहा था | गाँव में घुसते ही उसने साईकिल से उतर ऊँची टेर लगाई "ले लो लीची | टूटे फूटे लोहे प्लास्टिक से लीची बदल लो | ले लो लीची | "
"ओ जी , रद्दी से भी दे रहे लीची? " पड़ोस के किसी बच्चे के हत्थे कुछ रद्दी ही थी शायद् |
राजू का अपना खजाना था | भूसे के कोठड़े में , खेतों की ओर खुलने वाले सीखचे में, सड़क किनारे मिले कुछ बाल बियरिंग ,ट्रक से गिरा प्लास्टिक के पाइप का टुकड़ा , सड़क पर दौड़ते घोड़ों के खुरों से छिटकी लोहे की तनालें , नट बोल्ट, इंजन की पुरानी नोजल यही सब जमा था | उसका मन थोड़ा उदास था | रसीली लीचियों ने उसे खींच लिया | अपना खजाना लुटा और बदले में दो हथेलियाँ भर लीची पा राजू अपने चबूतरे पर आ गया | खेत से लौटते बापू को देख राजू को फिर से पीर की बजरिया याद आ गयी | बस एक रात और |
अगले दिन सुबह से ही देहात के लोग यूरिया के पुराने बोरों से बने थैले लिए बाजार की ओर कदमताल करते जा रहे थे | साईकिलों के पीछे बंधी बकरियाँ मिमियाती चली जा रहीं थीं | बैलगाड़ी में बैठे अपने बच्चे को सूँघती भैंसे पैर पटकती जा रही थी | अपनी साईकिलों के पीछे कपड़ो के गठ्ठर बांधे बजाज चले जा रहे थे | बाँझ और बेकार हो चुके मवेशियों के मालिकों को कसाई बजरिया से पहले ही रोक मोल भाव कर रहे थे | तांगे वाले कोस भर की मंजिल का एक रूपया वसूलते थे और बाजार के दिन भूसे की तरह आदमी और जनानियों को जबरिया तांगे में ठूसते जाते थे | पचास का नोट और मवेशियों की खली का पुराना बोरा ले राजू के बापू दोपहर बाद बजरिया को चले | दरवाजा लांघने को थे तो पीछे से राजू की माँ ने कहा " मिर्चा पिसी हुई मत लईयो | पिछली बार की मिर्चा में ईटा मिला हुआ जान पड़ै हा | साबुत ही लईयो | "तांगे में बैठने से पहले राजू ने याद दिला दिया "बाबा , पिचकारी मति भूल जइयो | "
शाम को बजरिया से लौटते ग्रामीणों के बच्चें तांगे के ठोर पर जमा थे | एक एक कर मर्द और जनानियां ताँगों से उतरते जाते | उनके झोलों की बुकें सामान के बोझ से फटी जा रही थीं | छोटे बच्चे अपनी मांओं की ओढ़नियाँ कुछ ऐसे पकड़ लेते जैसे घर का रास्ता वे ही दिखाने वाले हों | बड़े बच्चें अपने बापों के कंधो से थैले , जिनसे लौकियाँ बाहर झाँक रहीं होती ,अपने कंधो पर ले लेते और बड़े उतावले से घर की ओर निकल जाते |
लम्बे इंतज़ार के बाद वो तांगा आया जिससे राजू के बापू उतरे | उसने अपने साथियों की तरह लपककर झोला ले लिया और साँस तब लिया जब उसे आँगन में पड़ी चारपाई पर ला पटका | फिर वो एक एक कर सामान निकालने लगा | धनिया , मिर्च , चाय पत्ती , दादा के लिए तम्बाखू , गुड़ , माँ के लिए रिलेक्सो के चप्पल , खरबूजे के बीज , छटाँक भर किशमिश , सूजी , साबुन , यही सब निकला | इससे पहले की राजू कुछ कहता , उसकी माँ ने ही पूछ लिया " पिचकारी ना लाये लल्ला की ?"
"अरे , अनाप सनाप कीमत मांगे है ससुरे दुकानदार | कुछ जँची ना | "
"कीमत दो तो चीज हो कुछ मजबूत | छुए भर से ही टूटें हीं प्लास्टिक की पिचकारियाँ |"
राजू के मन की कौन जानें | क्या ये सब सुनने को ही वो दिनों से पीर की बजरिया का इंतज़ार करता था | कितना सब्र रखता |
"अच्छा जी , अच्छा जी | " वो कहता हुआ आँगन में पैर पटकता हुआ बाहर की ओर भागा | कोई मनाने नहीं आया तो वापस लौटा और माँ के आस पास भिनभिनाने लगा | माँ एक दो बार करहाई "सबर कर लल्ला | आ जाएगी तेरी पिचकारी | "
"अच्छा जी , अच्छा जी | अब ना चाहिए मुझे | "राजू मारे गुस्से के फड़फड़ा रहा था | नाक चौड़ी किये कुछ कुछ मिनमिनाता चला जा रहा था | माँ ने गुझियाँ और नमक पारे दिए तो उसने खटिया पर दे मारे और बोला "तुम ही खाओ |"
राजू को झींकते , भिनभिनाते घंटा भर हो चला तो माँ का माथा गरम हो गया | उसने दांत भींचे और बोली "फूकनी लाइए जरा ठाय कै | तेरा पिचकारी का भूत उतारू अभी |"
और इस तरह बिना पिचकारी के ही होली का दिन आ गया |
होली की सुबह उठते ही राजू के पिता ने आल्हे में रखी आरी ली | आँगन में एक ईंट जमा राजू को पास बिठाया | खोखले बाँस की दो बालिश भर की लकड़ी काटी और उसके एक सिरे पर चव्वनी से भी छोटा छेद बना दिया | फिर पतली दरांती दूसरे सिरे से अंदर घुमा घुमा बांस का पेट साफ़ कर दिया | अब उन्होंने सफेदे की सीधी टहनी क़तर उसके एक सिरे पर कुछ कपड़ा लपेटा | फिर उस कपडे के ऊपर बारीक सुतली की कई लपेटन खींचीं | बाँस के पेट को उन्होंने सरसों के तेल से तर कर चिकना कर दिया | सफेदे की टहनी का कपडे बंधा सिरा बांस के पेट में फंसा दिया और बैलगाड़ी के टायर की पुरानी ट्यूब के टुकड़े की कतरन में टहनी के आगे पीछे का निकास ढीला छोड़ बांस का पेट का सील कर दिया | राजू से बाल्टी भर पानी मंगाया और कुछ देर के लिए बाँस को पानी में छोड़ दिया | पानी की गील से कपडे और सुतली फूल गए | सफेदे के लकड़ी की पिस्टन को बापू ने खींचा तो बाँस को वो पिचकारी एक ही घूँट में आधा बाल्टी पानी पी गयी | राजू की माँ की ओर बाँस का मुँह घूमा उन्होंने पिस्टन को दबा दिया | माँ सराबोर | उसके मुँह से निकला "हाय री मेरी मैया | " और बापू हँस पड़े " होरी है भई होरी है | "
गली में हल्ला हो रहा था | प्राइमरी स्कूल के मास्टर साब साइकिल से चले जा रहे थे | गोबर के ढेर पर दो जनानियाँ खड़ी थी | बचके ना जाने पाएँ | मुँह जुगत से रगड़ दीजो इनका | हो हो हो।होरी है जी होरी है |"
और हल्ले गुल्ले के बीच मास्टर साब हाथ जोड़े खड़े थे " देखियो जी , रहम करियो | गोबर ना रगडियो | रंग लगाओ | गुलाल लगाओ | बस गोबर ना | "
मास्टर साब के ओहदे का ख्याल कर औरतें पीछे हट गयीं | और मोहल्ले के बच्चे अपनी अपनी पिचकारियों से मास्टर साब से स्कूल की पिटाई का बदला लेने लगे | पतली पतली पिच पिच रंग की धारों के बीच से मास्टर साब बड़े लापरवाह हो आराम से जाने लगे |
अचानक से बिजली की फुर्ती से राजू उनकी साईकिल के सामने आया और सीने के सामने जमा अपनी बांस की पिचकारी खोल दी |एक ही धार में मास्टर साब चोटी से एड़ी तक तरबतर | गाढ़ा काला रंग | अभी एक पल पहले जहाँ मास्टर साब खड़े थे वहाँ अब एक भूत खड़ा था | काला भूत |
"होरी है जी होरी है | बुरा ना मानो होरी है | "
"ओ बेटे की | जू है असली पिचकारी ! " कई आवाजें एक साथ बोल पड़ी | बनिए और किसानों के लड़कों ने राजू को घेर लिया |
" ओये , हमें दिखा | हमें दिखा| " सारी पिचकारियाँ राजू की पिचकारी के सामने फीकी पड़ गयी थीं |
राजू अपने चबूतरे की तरफ मुड़ा तो किसी लड़के ने उसे बाँह पकड़ रोक लिया " आडी, यही रह हमारी संगी | ऊ देख दक्खन के मोहल्ले के बालक हमपे हमला करने आ रए हैं | " और राजू ने अच्छे सिपाही की तरह पलटन के बीचोंबीच मोर्चा संभाल लिया |
शाम को कामधाम से निपट राजू की माँ ने उसके पिता जी से कहा " इस साल बड़ी अच्छी बीची (बीती ) होरी | राजी खुसी , गाम में कोई झगड़ा नाय हुआ | "
खाट पर पसरे बापू ने राजू की तरफ देखा " क्यूँ राजू , कहो कैसी रही ?"
बगल में लेटे राजू ने कहा " अच्छी रही बाबा , बहुते ही अच्छी | "
- सचिन कुमार गुर्जर