I
गांव में पश्चिमी छोर पर , खदाने के उस पार , गूजरो के ऊँचे दालान से धुआँ उठ रहा था। गाय भैंसो का झुण्ड सुबह से गायब था | शायद उन्हें दालान से हटा पिछवाड़े के नीम तले बांध दिया गया था | किराये के रंगीन तरपाल टंगे थे , जिनमे कुछ नए नीले तो कुछ थेक्ली लगे, बदरंग पुराने थे | उन तरपालों को जब पछुआ का झोका छेड़ता तो उनका गठजोड़ कुछ ऐसे फड़फड़ाता जैसे कोई अनाड़ी ढोल पीटता हो।
हीर रांझे के किस्से की कोई रागनी बज रही थी , किसी सस्ते और पुराने टेप रिकॉर्डर पर ।
" रात मेरे सपने में चिनवा दे गई हीर दिखाई रे ,
आंख खोल के देखन लागा फेर नहीं वा पाई रे|
.......
हीर र र र र......"
अल्मुनियम के बड़े दैत्याकार भगोने ,बांस की लकड़ियों के जोड़ से बनी कामचलाऊं पकडन में गर्दन फंसाये , कुछेक सीधे तो कुछ औंधे पड़े हुए थे। औंधे पड़े भगोनो के मुँह से लपटे सूती छन्नो से रिसता मांड नालियों में ऐसे बह रहा था जैसे गाढ़े गरम लावे पर किसी ने सफेदी पोत दी हो। काले, कवरे ,लाल और भूरे , कुछ नाम वाले तो कुछ बेनाम , ऐसे सारे आवारा कुत्ते बिना न्योते की बाँट जोहे, नाली से गरमागरम मांड की दावत उड़ा रहे थे।
"औ काका सुनो हो , मिर्च कम रखियो इस बार। चेता के लौंडे के बिहा में उड़द की दाल में इतनी मिरच ही , कै कै पब्लिक ने खाया कम, पानी ज्यादा पिया| " किसी उत्साही आवाज़ ने खानसामे को चेताया था |
नेतराम का छोटा लड़का जिसका कागजी नाम बलदेव था वैसे, पर मोटी अकल और जानवर जैसे शरीर के चलते सामने से बल्लू तो पीठ पीछे बैल कहके पुकारा जाता था, उसी का बिहा था। कुछ शराबी भरी दुपहरी में धुत्त कभी नाली में लौट-पोट तो कभी गोबर के घूर में बिस्तर का आराम फरमाते, पूरे गांव का मनोरंजन कर रहे थे ।
मंढे की दावत का बुलावा देने को नाई जब चला तो नेतराम ने किसी चक्रवर्ती राजा की तरह चारों ओर हाथ घुमा कहा " सुन रे नाई के | गुजर , बनिए , कुम्हार , चमार , गडरिये , बगवान अरर.. मुसलमान , सात जात है इस गाम मे| कोई घर छोड़िये ना | पीढ़ी का आखरी बिहा है , सबकी ही दावत है !"
पूरा गांव खुश था| बड़े और छोटे सबके पेट चावल बूरा , मसालेदार उड़द के लिए गुडगुडा रहे थे।
पर ऐसा जान पड़ता जैसे बासमती की खुशबु में लिपटा वो धुएं का बादल आसमान की ओर ऊर्ध्वाधर होने की बजाय यूकेलिप्टिस के झुरमुटों में बसे रामवती के आँगन में उतरा जा रहा हो |
ऊँचे दालान से वो उठता ख़ुशी और कहकहो के साथ ,पर जब रामवती के आँगन में उतरता तो घर में बसने वाली आत्माओ को जलाता , सुलगाता| | बूढी , जवान, सब आँखों को चिरमराता।
कच्ची पक्की अनघड़ हाथो से बनी दीवार जिसे गाय के ताजे गोबर से लीपा गया था , दो बड़े हवादार मोखले खुले थे , उसी दीवार और कोई चार पांच आडी तिरछी लकड़ी की टेकनो पे टंगे छप्पर तले रामवती का परिवार जमा था |
इधर उधर की बातें कर बड़े लड़के ने कहा " तो बताओ , क्या राय है तुम सब की , दावत में जाया जाये कि नहीं ?"
सब चुप रहे तो मंझले ने कुछ तो बोलना लाजमी समझा , बिना वजह सिर खुजला के बोला " कैसे ही कर लो हमारे जाने | सब की मर्जी हो तो जाएँ नहीं तो ना जाए | "ये बिना मतलब की, सिर्फ बात को आगे बढ़ाने वाली बात थी |
तीनो लड़के , बड़ा रणपाल , मंजला नेपाल और छोटा बिरजू , सब जानते थे कि असल फैसला तो माँ से ही आना है | पिता जी थे , तीसरी खाट पर बिराजमान थे पर बुढ़ाते और बेहद सीधे मिजाज के बाप का ओहदा किसी काठ के पुराने लट्ठे जैसा था , जो आती जाती बरसात गरमी में गल चुका था ,किसी काम का ना था , बस स्थान भर घेरता था |
"जाना तो चाहिए लल्ला , नेतराम से हमारा कैसा बैर | बिरादरी से मुँह फेर के किसकी गुजर हुई है| " रामवती का तुजर्बा बोल रहा था |
लेकिन ये कहना अलग बात थी उस पर अमल करना एक अलग बात |
कुछ दिन पहले ही तो चेता के लड़के की दावत में ये हुआ था जब दावत खाने को बैठी भरी पंगत में मुंहफट कन्हाई ने अट्टहास किया था " औ रणपाल , अरे भले मानस पूरे गांव में दावत उड़ाओ हो , कभी अपने घर भी खिलाओ | "
और जो बन पड़ा वो जबाब दे रणपाल चला आया था |
ये बात हंसी मज़ाक की हलकी फुल्की बात मानी जाती| पर परस्थिति कुछ ऐसी थी कि रामवती के घर में पिछले दसो सालों से कोई कारज न हुआ था | बिरजू कब से जवान था , उम्र ढलान पकड़ रही थी पर उसका बिहा न होता था | कन्हाई तो एक मुंहफट आदमी था उसका क्या | पर इन परिवारजनों को खुद ही एक अपराध बोध सा रहता था | बिरजू की शादी न हो पाना समाज में एक तरह का अपमान तो था ही |
'जख्म में नमक ' वाली बात ये थी कि ये जो नई बिहाता नेतराम के लड़के के घर आ रही थी , बिरजू से इसका लगन लगभग तय हो गया था |
अहह... उस दिन रामवती कजइतन होती , बासमती के भगोने उसके आँगन में लुढ़के होते | सबसे बड़ी बात उसकी परलोक जाने से पहले की आखिरी इच्छा पूरी हो गयी होती |
अगर और अगर उस करमजले कन्हाई ने भांजी ना मारी होती |
खैर, मलाल और दर्द अपनी जगह , बिरादरी में खान पीन , उठा बैठ अपनी जगह |
अपने नील लगे कुर्तो को निकालने का आदेश दे मर्द सरकारी नलके पर नहाने चले गए थे | दावत में शामिल होना तय हुआ था |
II
***
बिरजू काया से सुकुमार था | लम्बा कद , मजबूत कंधे ,खड़ी रोमन नाक , सुर्ख रंग | अभी तक उसके गालों पर छोटे बच्चो जैसी लाली थी |
उसकी आँखे दीये जैसी बड़ी बड़ी और इस कदर नशीली कि किसी को जी भर कर देख ले तो कलेजा खींच ले जाये |
सच तो ये है कि रामवती जहाँ दिन रात अपने राजकुमार से बेटे के बिहा की आस बांधती, वही अंदरखाने दोनों बड़ी बहुये नहीं चाहती थी कि बिरजू का बिहा हो | जमीन कम थी, क्यों एक और नया हिस्सेदार खड़ा किया जाए !
रामवती ढोर डंगरो या खेत खलियान में जमी होती तो दोनों अपने अपने तीर आजमाती | मीठी चासनी में डुबो बातें सुनाती , रिझाती | कुछ अच्छा सा पका बच्चो के हाथ देवर तक पहुँचाती| कभी सीधे ,कभी घुमा फिरा बिरजू की तारीफों के पुल बांधती |
अजी सगी भाभियों का छोड़ो , बिरजू कभी बाहर निकलता तो मौका पा अड़ोस पड़ोस की स्त्रियां भी अपना जी हल्का कर लेती |
कोई शिकायत करती " तम तो निगाह भर देखते तक न बिरजू , भले मनसो , आ जाया करो कभी हमारी लग भी !"
तो कोई किसी बहाने खीर का कटोरा बिरजू को थमा जाती |
बिरजू सबको एक रस देखता , सबकी सुनता , सबके छोटे बड़े काम करता | कोई बोलती, बोल लेता | कोई खिलाती , खा लेता | कोई सुनाती , सुन लेता |
असल में औरतों में बिरजू को कोई विशेष आसत्ति थी नहीं !
उसका एक ही शगल था | चारपाई पर पैर पसार , कच्ची भीत से कमर चिपका कर बैठ जाना और घंटो शून्य में ताकते रहना |
और वह ऐसा तब तक करता रहता जब तक रामवती उसे खरी खोटी सुना गाय भैस दुहने न भेज देती |
बी ए पास था | सिपाही , वन दरोगा , पटवारी , आग बुझाने वाली पुलिस , स्कूल चपरासी , रेलवई , हर तरह की सरकारी मुलाजमी को उसने अर्ज़ी दी थी |
पर सरकारी उसे मिली नहीं , प्राइवेट उसने की नहीं ! बस इसी में उम्र निकलती चली गई |
ज्यादा सोचने की उसकी चित्तवृति थी नहीं |
सोचने का जिम्मा रामवती के मत्थे था | दिन रात सोचती |
कोई रिश्तेदार आता तो जरूर कहती "सुंनियो रिश्तेदार , बिरजू की उम्र निकली जावे है | मैं कब तक हूँ | लगाओ कही जुगत | इतनी बड़ी बिरादरी है , क्या कोई ऐसा गरीब गुरबा नहीं , जो हमे सीधी साधी ओढ़नी में अपनी लड़की दे दे |
रूपमति की दरकार ना है , बस साफ़ सुध , बिरादरी की बालक हो |
हमारे अमीरी ना है , पर दो रोटिओ में टोटा न है | सच मानियो | पूछो इन बड़ी बहुओं से | ये भूखी मरी जावें है क्या ?"
और जबाब अक्सर यही होता " सब जमीन देखे है मौसी , घनी जमीन या सरकारी नौकर | आदमी का रूप , लक्षण न देखती बिरादरी |
अच्छी जमीन हो या लड़का नौकरी पेशा हो , फिर देखो कैसे भागे हैंगे महारे ससुरे बिरादरी के लम्बरदार |
काले तवे का बिहा कर देंगे मौसी , काले तवे का !"
बिरजू भिनभिनाता, कभी कभार माँ की मान मन्नतों का दौर ज्यादा लम्बा खिंच जाता तो धीमे से कहता "तू रिस्तेदारो का आना छुडवाएगी माँ , इतना मत झींका कर | कौन सा हमारा नाम डूबा जावे है | बड़े भईयों के बालक है तो "
रामवती कुछ झिड़कती , फिक्रमंद चेहरे पर अपने हाथ की मुठ्ठी से ढांप लेती और बहुओं की ओर इशारा कर कहती " अरे मेरे भोलू , जिस दिना मेरी आंख मिच गई, चार रोटियों को तरसा देंगी तुझे ये दोनों त्रिया | " उसकी आँखे डबडबा जातीं |
रामवती को अपनी छोटी बहु से थोड़ी आस थी | उसकी एक छोटी कुँवारी बहन थी, बिहाने लायक |
छोटी बहु खांट थी , कैंची की तरह जवान चलती थी उसकी | पर रामवती सब सहती , आस बहु के सब तीरों पर भारी पड़ती |
फिर जब बहु की बहन का रिश्ता कही और तय हुआ तो बहु बोली " मुझे ही दे के पछताए मेरे बाबा , छोटी को भी इसी घर डुबो देते क्या !"
रामवती का कलेजा मुँह को आने को हुआ | दुःख और ऊपर से बेइज्जती का जो तेज़ाब बहु ने फेंका , भड़भड़ाती हुई बोली " हे राम जी , मेरे बिरजू का बिहा हो या न हो , ऐसी खांट लुगाई न चईये| "
बहु और भी ज्यादा कड़वी " हाँ हाँ। देखूंगी , लाओ तो सही कही से भानुमति | लाओ तो | "
बहु की बात रामवती तो ऐसे चीरती जैसे नुकीले कांच से कोई हलक में चीरा लगा दे |
बड़ी मिन्नतों से एक रिश्ता गांव तक आया था | पता नहीं कन्हाई ने कहाँ से सूंघ लिया | क्या रिश्तेदारी निकाली , राम ही जाने | लड़की वालों को बीच रास्ते से खींच ले गया | गुड और गाढ़े दूध में उन्हें तर किया और फिर सगा बनता हुआ कानों में बोला " कहाँ डुबो हो रिश्तेदार , इन सालों के गाम में मँड़ैया ना, हार में टपरिया ना " | उसका तात्पर्य घर और जमीन से था |
फिर उसने ऐसा रंग जमाया, ऐसा रंग जमाया कि बिरजू के गले की माला का हकदार बन बैठा बल्लू उर्फ़ बैल उर्फ़ बलदेव |
III
***
प्रकृति ने ही शायद हम इंसानो की बनावट में कुछ ऐसा फेर किया है कि हमे लगता है कि हम लम्बे समय तक यहाँ टिकने वाले है |
सच ये है कि एक बार जिंदगानी का सूरज ढलान का रास्ता पकड़ता है तो फिर शाम , और किताब के आखिरी पन्नो को पलटाती रात बड़ी तेज़ी से आती है|
घर के पीछे लगे यूकेलिप्टीसो के पौधे अब दरखत हो चले थे | ज्यों ज्यों उन पेड़ों की नयी टहनियाँ आसमान को निगलने को बढ़तीं , रामवती की उम्मीदों का दामन त्यों त्यों सिकुड़ता जाता |
घर का काम करती तो उसकी बुढ़ाती देह हाँफने लगती |
हाथ पैरो पे सूजन आ जाती | चेहरा पीतवर्ण हुआ जा रहा था | जिगर ने खून बनाना बंद कर दिया था |
शहर के बड़े डॉक्टर ने पोटली भर के दवा दी थी | कोई कुछ खाने को कहता तो वो कराहती "अरे पेट तो दबाइयों से भरा रेहँवे है , खान पान की गुंजास कहाँ | "
परिवार भला था , बहुओ के व्यबहार बदल गए थे | अब वो उसे 'माँ' कह पुकारतीं | खान पीन का ख्याल रखतीं |
बड़े लड़कों को अहसास था कि माँ ज्यादा दिन टिकेगी नहीं | बिरजू के हाथ पीले होते देखने की फ़िक्र अब उनकी फ़िक्र हो गयी थी |
बिरादरी अच्छे बुरे लोगो की खिचड़ी हुआ करे है | कोई भला मानस एक प्रस्ताव लेकर आया | सब काम चट मंगनी पट बिहा की रफ़्तार से होना था | लड़की का बाप गरीब था बस ग्यारह आदमी बुलाता था | बिरजू के हिस्से कितनी जमीन आती है , इसकी उसने कोई पूछतांछ तक ना की |
राम जी की मेहर हो रही थी | परिवार जन राहत में थे | माँ की आत्मा तड़फती तो ना जाएगी |
घर का माहौल बदल गया था | सब साथ खाते , हर छोटी बड़ी बात पर हँसते |
रणपाल कहता " औ माँ , कुछ खाया कर| लगन का हफ्ता भर है , कमजोरी में मालपुए कैसे बनाएगी ?"
बड़ी बहु चहकती " माँ कू चूल्हे पे नाय बैठें देमे हम दोनों | तम पलंग पर बैठ हुकम करियो माँ |"
रामवती कराहती , धन्यवाद की मुद्रा में हाथ ऊपर करती और कहती " सब हो जायेगा | तुम अपने अपने कामों की फ़िक्र करो "
लगन से ठीक चार दिन पहले बिचौलिया आ गया और पुरुष चाय पानी के बाद छपरे तले जमी चारपाइयों पर आ जमें |
"डेढ़ लाख तो बहुत ज्यादा है रामफल भईया , वो भी ऐन मौके पर आकर | " रणपाल ने खाट पर बैठे बैठे ही जमीन पर लकीर खींची और फिर अगले ही पल मिटा दी |
"भईया , नहीं तो लड़की वाला बिहा टाले है अगले साल तक | उसकी गुंजाईश नहीं है |"
"कपडे लत्ते , सदूक़ पलंग , बरतन गहने | फिर चार आदमियों की दाबत | मैंने कोशिश की पर इससे काम में नहीं बनती बात | "
"पर डेढ़ लाख हमारी हद के बाहर है रामफल| तीस हज़ार चालीस हज़ार होते तो हम दो तीन भैसिया बेच देते | जमीन के खूँड़ कम है, इसे बेच बच्चों के हाथ कटोरा कैसे थमा दें? " रणपाल का स्वर हताश था |
बिरजू खाट की पायत पर जमा था | उसके नथुने फूल कर चौड़े हो गए थे | सांस धोकनी सी चल रही थी | भृकुटियां तन गयी थी |
"लड़की बेचता है हरामखोर | सूअर का बीज | माँ ना मर रही होती ना रामफल तो उस साले की गर्दन गंडासे से काट कर आता | ख़तम करो ये स्वांग |" आँखों में आंसू लिए और लाचारी में पैर पटकता बिरजू वहाँ से निकल गया था |
इतनी बड़ी बात माँ से कैसे छुपती |
हे विधाता , सालो की मन्नते , खुशामंदी , कोशिशे | इतनी ख़ुशी तो तुझे दे देनी चाहिए थी ! तेरी माया तू ही जाने !
IV
***
उस साल बारिश बहुत कम हुई थी | पूरब से तेज बादल उठता , गड़गड़ाता फिर थोड़ी बहुत फुसार होती और बिना बरसे ही बादल उड़ जाता |
खड़ंजों पर निकलते किसान मज़दूर कहते " तेरे घर भी न्याब ना है राम जी | कही बरसे है तो मूसलाधार तो कही निपट सूखा | "
कोई फुर्सत में होता तो कुछ देर रामवती के पास बैठ लेता | वह अक्सर नीम तले लेटी होती | शरीर अब विघटन की ओर था | पूरे शरीर में पानी उतर आया था |
और वाकई भगवान के घर न्याय था ही नहीं |
रामवती के घर से दो घर छोड़ कृपाल सिंह का मकान था | जमीन थी , बड़े नखरे किये थे | लम्बी हो , दरमियानी भी ना हो | गोरी हो , गेहुए रंग कि भी ना हो | परिवार ऐसा हो , वैसा हो | तमाम मापदंड नाप तौल अपने लड़के का रिश्ता थामा था |
हुआ यूँ कि रिश्ता जुड़ने के बाद कृपाल का लड़का पुलिस में भर्ती हो गया | एक तो अच्छी जमीन ,ऊपर से लड़का हो गया सरकारी नौकर !
बस दिमाग में बू भर गयी | बाप ने समझाया लेकिन लड़का कहाँ माने |
अड़ गया कि लड़की पढ़ी लिखी ही लेगा | चाहे जो करो |
कहने वाले तो ये कहते कि बाप और बेटे दोनों के ही दिमाग घूम गए थे | ज्यादा धन दहेज़ की इच्छा बलबला उठी थी | बाप खुल कर कह नहीं पाता था | बेटे को आगे कर दिया था |
पर बिरादरी और चार पंचो में दिया हुआ वचन |उसका क्या ? लड़की वाला चार पंच ले दहलीज पर आ धमका |
"खुल कर बोलो मुकद्दम , चाहो क्या हो | वचन निभाओ हो या लालच में कतई अंधे हो चले ? "
कृपाल सिंह ने खूब लीपापोती की ,पर नए खून के लड़के ने अहंकार में साफ़ कर दिया कि रुपय्या (वचन की निशानी में दिया जाने वाला चांदी का रुपय्या ) वापस ले जाओ और हमारी राम राम पकड़ो |
होनी बड़ी बलबान होती है | लड़की के पिता ने चार पंचो में ऐलान किया " देखो मुकद्दम , जब हम कोसों मंजिल काट , सात सुगन शुभ काम को इस गांव में है तो लड़की तो यही बिहायेंगे | इस घर ना सही किसी और घर सही ! "
हवा इतनी मरियल थी कि गौर से देखने पर ही कोई पत्ता हिलता जान पड़ता था |
कुछ दवा के नशे में तो कुछ बेहद कमजोरी के चलते रामवती आँख मूंदे आँगन में खाट पर पड़ी थी | सब आस पास खड़े थे | बड़ी बहु हाथ का पंखा झलती थी |
लड़की के बाप ने खाट की बांसी पकड़ पहले धीमे फिर ऊँची आवाज़ में कहा " चौधरन औ चौधरन ,मक्क सुनो हो |"
"तुम्हारी मर्ज़ी हो तो मैं बिरजू का रुपय्या दूँ हूँ ! .. बोलो "
रामवती की देह में इतना दम कहाँ बचा था कि वो 'हां' या 'ना' कहती | उसकी बंद आँखों से आंसू की धारा किनारे तोड़तीं हुई बुझते गालों पर लुढ़क गयी |
"हाँ कह रई हैं माँ , हाँ जी, हाँ है| " बड़ी बहु बोल उठी थी |
लड़की के बाप ने चांदी का रूपया जेब से निकाल , नसों और हड्डी के गुच्छे बन चुके रामवती के हाथ में रख दिया और अपने हाथ का बल प्रयोग कर रमावती की मुठ्ठी बाँध दी |
रामवती ने इस बार हिचकी ली तो फिर सांस नहीं लौटी | हिड़की बांधे रणपाल ने अपनी माँ की ठोडी उठा ऊपरी जबड़े से मिला दी और बिलखते हुए बोला " तू जा माँ , तू जा | अब तेरा दुःख ना देखा जाता | "
बहुये दहाड़े मार मार कर रोने लगीं " बिरजू का बिहा आ लिया री माँ | ओह माँ , बिरजू का बिहा देख जइयो री माँ | ओ म्हारी माँ !"
इति
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#indian Village Life, Indian Farmer Life , Poor Life