शुक्रवार, 5 सितंबर 2014

तुम आओगी न गौरैय्या ?



अभी परसों ही की तो बात है ।

ध्रुव की नानी के घर जामुन के बड़े छायादार पेड़ के नीचे चारपाई  डाले मैं  सुस्ता रहा था । 
अचानक  कही से बड़ी प्यारी सी , नाज़ुक सी गौरैय्या अवतरित हुई और नीची शाखों पर छलांग लगाती हुई , चारपाई के एकदम बगल में उतर बैठ गयी । मुझे देख उसने अपनी गर्दन को बड़ी नज़ाकत से पहले दायें फिर बाए घुमाया और फिर फुदक फुदक कर नलके के आगे बने गड्ढे में पानी पीने लगी । 

अपनी छोटी सी ,चमकीली चोंच में पानी भर उसने आसमान की तरफ उठा दी ।  पता नहीं कितने अरसे बाद गौरैय्या के दर्शन हुए मैं तो इस प्राणी को लुप्त मान बैठा था । लपककर मैंने अपना मोबाइल उठाने की कोशिश की पर इससे पहले की मैं उसे अपने मोबाइल में कैद कर पता , नन्ही चिड़िया फुर्र  हो गयी । शायद वो मुझसे नाराज़ थी , बचपन में हमने उसके परिवार को बड़ा सताया था , शायद इसीलिए ! 

बचपन की दुनिया में कितनी सारी गौरैय्या हुआ करती थीं  , है ना । 
हमारे मकान के आगे बने छपरे में उनके घोसले थे । माँ कई बार गुस्सा कर जाती , वो घर द्वारा  बुहारती और नन्ही गौरैया अपने घोंसले के लिए चुने तिनके बिखेर बिखेर उसकी मेहनत पे पानी फेर देतीं  । 

हमारे मकान से छपरे की ओर जो बड़ा वाला रौशनदान खुलता था ना ,वो तो मानों गौरैयों के लिए ही बना था । 
घर में उन दिनों एक बड़ा सा दर्पण था , आदम कद का।माँ कहती थी कि पिता जी ने उसे  पास के शहर से स्पेशल आर्डर दे बनवाया था । माँ गर्व से कहती थी कि उससे बड़ा और आलीशान दर्पण पूरे गाँव में न था । 
गौरैया उस दर्पण में अपना प्रतिबिम्ब देख कई बार बड़ी देर तक दर्पण में चोंच मार मार कर लड़ती रहतीं थी
 जब तक वो हार न जाती थीं । 

फिर अपनी दादी थी जो गौरैयों को पानी या धुल में नहाते देख बरसात के आने की भविष्यवाणी कर देती थी । 
हम भी शरारती थे , गर्मियों के दिनों में जब माँ और दादी मसूर या उड़द की छाली घर के आँगन में धूप  लगाने को बिछा देती थी तब दर्जनो गौरैया आ जाती थी । 
हम किसी टोकरी के तले रोटी के कुछ बारीक टुकड़े बिखेर देते और टोकरी को एक सिरे से उठा एक पतली लकड़ी से अटका देते , फिर उस लकड़ी में रस्सी बाँध देते और उसके सिरे को पकड़ छपरे तले खटिया डाल उसकी अदवायन  पे इत्मीनान से बैठ जाते । कोई बेचारी लालच की मारी गौरैया आती और हमारे जाल में फंस जाती । फिर हम पूरे मोहल्ले भर के दोस्तों में उसकी प्रदर्शनी लगाते । उसे जबरदस्ती पानी के कटोरे में डुबो डुबो पानी पिलाते । जब मन भर जाता तो उसके पैर में मजबूत डोरा बाँध उसे उड़ा देते । 

गौरैया यहाँ वहाँ फुदकती । इस आँगन से उस आँगन जाती । वो जिस जिस दोस्त के घर जाती वो दोस्त हमे रिपोर्ट देता कि तेरी वाली चिड़िया आज मेरे घर आई थी । पूरी  दोस्त मंडली को कलर कोड के जरिये पता होता कि कौन सी गौरैया किसने पकड़ी । जैसे नीले डोरे वाली भोलू ने पकड़ी , काले डोरे  वाली  मुन्नू ने  । 

तब किसने सोचा था कि हमारे बचपन के साथ साथ गौरैया भी चली जाएगी । पता होता तो या तो किसी पक्की डोर से बांध जाने ही न देते , कहते यही रहो पूरे परिवार के साथ । हम तुम्हारा पूरा खर्च पानी उठाएंगे । या माँ से कह देते  कि माँ इस छपरे को छपरा ही रहने दे , पक्का मकान न बना यहाँ हमारी दोस्त का परिवार बसता है । 

प्यारी गौरैया हम माफ़ी मांगते है अपनी तमाम बचकानी हरकतों के लिए , तुम प्लीज लौट आओ अपने परिवार के साथ ।विद्या कसम खाते है  , अब कभी तुम्हारे पाँव में डोर न बांधेंगे । 

बड़ी इच्छा है कि जब बालक ध्रुव हमारी बातों को समझने लगे तब किसी दिन कोई गौरैया नानी के घर वाले जामुन के दरख़्त से नीचे उतरे , फुदक फुदक कर हैंडपंप के गड्ढे में जा अपनी छोटी सी प्यारी चोंच डुबो डुबो पानी पिए और फिर उस दिन  की तरह हमारे पास आ अपनी गर्दन दायें घुमाएं ,फिर बाए घुमाए । 
और फिर हम बालक को अपने बचपन की दोस्त के सारे किस्से सुनाये । 
और हाँ , हम बालक ध्रुव को सख्त हिदायद देंगे कि कभी गौरैया के पाँव में रस्सी न बाँधे । 

तुम आओगी न गौरैय्या ? हम तुम्हारे अस्तित्व की लड़ाई में जीत की दुआ करते है ।



अच्छा और हम्म

" सुनते हो , गाँव के घर में मार्बल पत्थर लगवाया जा रहा है , पता भी है तुम्हे ? " स्त्री के स्वर में रोष था |  "अच्छा " प...