वो कहते है ना , कि वक़्त के पंख होते है ।फुर्र से उड़ जाता है ।
चीज़े बदल जाती है ।इंसान बदल जाते है।
परिभाषाये बदल जाती है , मायने बदल जाते है ।
आज शाम को बीवी के साथ समंदर किनारे बैठा था।
पास में ही गीली रेत में कुछ अँगरेज़ बच्चे रेत के सुन्दर घरोंदे बना रहे थे ।.
इन बच्चों के पास खेल के कितने सारे खिलोने और औज़ार होते है । प्लास्टिक के फावड़े,कन्नी से लेकर बुलडोज़र तक ।
परिभाषाये बदल जाती है , मायने बदल जाते है ।
आज शाम को बीवी के साथ समंदर किनारे बैठा था।
पास में ही गीली रेत में कुछ अँगरेज़ बच्चे रेत के सुन्दर घरोंदे बना रहे थे ।.
इन बच्चों के पास खेल के कितने सारे खिलोने और औज़ार होते है । प्लास्टिक के फावड़े,कन्नी से लेकर बुलडोज़र तक ।
दीवारों और गुम्बदो के बने बनाये प्लास्टिक के सांचे आते है । बस उनमे गीली रेत भरो और एक मिनट में आपका चमचमाता हुआ रेत का किला तैयार ।
याद आया अपना बचपन ,जब हम भी रेत के घरोंदे बनाया करते थे ।
तब हमारे पास प्लास्टिक के सांचे नहीं होते थे ।
अपने नन्हे हाथों और अपनी नव कल्पित सृजन छमता के सहारे ही हम बरसात या सिंचाई की गीली रेत को मूर्त रूप दिया करते थे ।
अपने नन्हे हाथो से मैं ऐसा सुन्दर मंदिर और शिवलिंग बनाता कि दोस्त हैरान रह जाते ।
मंदिर और शिवलिंग के नमूनों पे ही हमारी स्रजनता ना रूकती । हम तो पूरा नगर बनाने वाले वास्तुकार थे ।
वहां नदियाँ बनती थी उनके ऊपर सरकंडो के पुल होते थे , जिनके ऊपर ईंट के बिना पहियों के ट्रक गुजरा करते थे ।
नदी के उस पार छोटे छोटे क्यारिदार खेत हुआ करते थे । नदी पे तटबंध लगा कर उन खेतो की सिचाई हुआ करती थी ।
चीज़े कितनी तेज़ी से बदली है ।
अप्रैल का महिना चल रहा है ।उत्तरी भारत में ये गेहूं की फसल की कटाई मंड़ाई का समय है ।
चीज़े कितनी तेज़ी से बदली है ।
अप्रैल का महिना चल रहा है ।उत्तरी भारत में ये गेहूं की फसल की कटाई मंड़ाई का समय है ।
अगर इन दिनों आप किसी परंपरागत यूपी के गाँव का मुयाना करे तो दिन के समय सारे गाँव को सूना पायेंगे । हर कोई जो शक्त है , छम्तावान है , खेतो में गेहूं की फसल की कटाई मड़ाई में लगा होगा ।
बचपन में ये दिन ख़ास हुआ करते थे । उन दिनों हम बच्चों को कोई पॉकेट मनी नहीं मिला करती थी ।
वस्तु विनिमय का चलन था । गाँव के बनिए के दूकान पे गेहूं बेच कर गुड्दानी खाने में क्या मज़ा था ,वो भी चोरी छुपे ।वो मज़ा आज के हल्दीराम के रेडीमेड रसगुल्लों में कहाँ ।
बताता चलूँ कि गुडदानी क्या होती थी । चीनी की सफ़ेद पट्टी में चने के दानो को फेट कर उसकी पतली परत बना दी जाती थी जो सूख कर काफी सख्त हो जाती थी । गाँव की दुकान में गुडदानी शायद अब भी मिलती है ।
साथ में याद आ जाते है वो गेहूं के गद्दे । आप लोगो में से जो ग्रामीण , किसान प्रस्तभूमि के होंगे वही लोग इस चीज़ से वाकिफ होंगे ।
अप्रैल के शुरुआत के दिनों में गेहूं की बालियों में गेहू के दाने शख्त नहीं होते बल्कि हरे मुलायम, रसीले होते है । उन दिनों हमारी दोस्त मण्डली स्कूल के छुट्टी के बाद निकल जाती । गेहूं के नरम बालियों को हम आग में भून देते । आग में झुलसी बालियों को हाथ से मसल कर दाने निकाल लेते और बड़े चाव से खाते ।जमाना गुजर गया , ना जाने कितने साल हो गए , गेहूं के गद्दे खाए हुए ।
अप्रैल के शुरुआत के दिनों में गेहूं की बालियों में गेहू के दाने शख्त नहीं होते बल्कि हरे मुलायम, रसीले होते है । उन दिनों हमारी दोस्त मण्डली स्कूल के छुट्टी के बाद निकल जाती । गेहूं के नरम बालियों को हम आग में भून देते । आग में झुलसी बालियों को हाथ से मसल कर दाने निकाल लेते और बड़े चाव से खाते ।जमाना गुजर गया , ना जाने कितने साल हो गए , गेहूं के गद्दे खाए हुए ।
लिखना चाहूँ तो एक पूरी फेरिस्त है ऐसी चीजों की , जो ख़ास थी और विलुप्त होती जा रही है ।
दादी के हाथ के गुड आटे के चीले , बथुए के पराठे , गन्ने के रस की खीर , बाजरे के अदरसे .. कहाँ लुप्त हो गए सब । कितने लोगो ने तो इन सबके बारे में सुना भी नहीं ।
सोचता हूँ किस अंधी दौड़ का हिस्सा हूँ । जीवन एकाकी हो चला है ,दुनिया फसबूक ट्विट्टर पे सिमट के रह गयी है । बचपन के वो छोटे छोटे सुख कब के वाष्प बन उड़ गए ।
काश मेरे हाथ में कोई रिमोट होता और मै उस सरल , सीधी साधी , उत्साह भरी जिंदगी में लौट पाता।
जी पाता वो दिन , खेल पाता दोस्तों संग वो चोर सिपाही का खेल , खा पाता वो सब चीज़े जो अब बस दिमाग में ही बसती है ।
काश ज़िन्दगी की गाड़ी में रिवर्स गियर होता ।